आग़ाज़ बरनी के शेर
मिरे एहसास के आतिश-फ़िशाँ का
अगर हो तो मिरे दिल तक धुआँ हो
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मैं तो बस ये चाहता हूँ वस्ल भी
दो दिलों के दरमियाँ हाएल न हो
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वो ख़्वाब जिस पे तीरा-शबी का गुमान था
वो ख़्वाब आफ़्ताब की ताबीर हो गया
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क़द का अंदाज़ा तुम्हें हो जाएगा
अपने साए को घटा कर देखना
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मैं ख़ुद से छुपा लेकिन
उस शख़्स पे उर्यां था
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अब अगर इश्क़ के आसार नहीं बदलेंगे
हम भी पैराया-ए-इज़हार नहीं बदलेंगे
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ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की
तेरे दामन में इक सहर होती
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