आग़ाज़ बरनी
ग़ज़ल 8
अशआर 8
ऐ शब-ए-ग़म मिरे मुक़द्दर की
तेरे दामन में इक सहर होती
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क़द का अंदाज़ा तुम्हें हो जाएगा
अपने साए को घटा कर देखना
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उसे सुलझाऊँ कैसे
मैं ख़ुद उलझा हुआ हूँ
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मैं ख़ुद से छुपा लेकिन
उस शख़्स पे उर्यां था
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मिरे एहसास के आतिश-फ़िशाँ का
अगर हो तो मिरे दिल तक धुआँ हो
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