अहमद जहाँगीर के शेर
आफ़रीनश के हफ़्ते में छे रोज़ तक एक तस्वीर पैहम बनाई गई
दिन ज़िया-साज़ हाथों से ज़ाहिर हुआ और मुसव्विर की कारीगरी रात है
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एक तरफ़ कुछ होंट मोहब्बत की रौशन आयात पढ़ें
इक सफ़ में हथियार सजाए सारे जंग-परस्त रहें
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हम फ़क़ीरों में राजा की चौकी चढ़े काहिनों में पयम्बर पुकारे गए
दिन निकलने का भी वाक़िआ' है कोई या अभी तक धरी की धरी रात है
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तार कस कर कोई रागनी छेड़ दे ऐ तवाइफ़ अज़िय्यत भरी रात है
जानती है सराए की हर ऊंटनी इस मुसाफ़िर की ये आख़िरी रात है
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दस मोहर्रम की फ़ाक़ा-शिकन अस्र का सर झुकाए हुए बैठ कर सोचना
चंद फूलों में लिपटी हुई फज्र थी कुछ चराग़ों की नौहागरी रात है
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कैफ़ियत के इशारे पे तस्वीर में चंद रंगों की तरतीब बदली गई
आसमाँ ज़र्द है और ज़मीं नीलगूँ चंद काले शजर इक हरी रात है
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आसमानी बशारत से दहका हुआ ख़्वान उतरे तो माहौल तब्दील हो
ख़ाक-रूबों की बस्ती में गिर्या-कुनाँ कुछ दिनों से नहूसत भरी रात है
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चंद घंटों में सूरज निकल आएगा तब ये ज़ीना उतर कर चली जाइयो
ज़िंदगी देख आगे बयाबान है शम्अ' गुल हो गई रुक अरी रात है
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