अहमद ख़याल के शेर
महकते फूल सितारे दमकता चाँद धनक
तिरे जमाल से कितनों ने इस्तिफ़ादा क्या
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ये भी एजाज़ मुझे इश्क़ ने बख़्शा था कभी
उस की आवाज़ से मैं दीप जला सकता था
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हवा के हाथ पे छाले हैं आज तक मौजूद
मिरे चराग़ की लौ में कमाल ऐसा था
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मैं था सदियों के सफ़र में 'अहमद'
और सदियों का सफ़र था मुझ में
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ऐन मुमकिन है कि बीनाई मुझे धोका दे
ये जो शबनम है शरारा भी तो हो सकता है
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टैग : बीनाई
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ये भी तिरी शिकस्त नहीं है तो और क्या
जैसा तू चाहता था मैं वैसा नहीं बना
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कोई हैरत है न इस बात का रोना है हमें
ख़ाक से उट्ठे हैं सो ख़ाक ही होना है हमें
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सुकूत तोड़ने का एहतिमाम करना चाहिए
कभी-कभार ख़ुद से भी कलाम करना चाहिए
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तुम्हारी जीत में पिन्हाँ है मेरी जीत कहीं
तुम्हारे सामने हर बार हारता हुआ मैं
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तू जो ये जान हथेली पे लिए फिरता है
तेरा किरदार कहानी से निकल सकता है
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किसी दरवेश के हुजरे से अभी आया हूँ
सो तिरे हुक्म की तामील नहीं करनी मुझे
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वो सर उठाए यहाँ से पलट गया 'अहमद'
मैं सर झुकाए खड़ा हूँ सवाल ऐसा था
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वो ज़हर है फ़ज़ाओं में कि आदमी की बात क्या
हवा का साँस लेना भी मुहाल कर दिया गया
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कोई तो दश्त समुंदर में ढल गया आख़िर
किसी के हिज्र में रो रो के भर गया था मैं
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दश्त में वादी-ए-शादाब को छू कर आया
मैं खुली-आँख हसीं ख़्वाब को छू कर आया
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मेरे कश्कोल में डाल और ज़रा इज्ज़ कि मैं
इतनी ख़ैरात से आगे नहीं जाने वाला
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वो दे रहा था तलब से सिवा सभी को 'ख़याल'
सो मैं ने दामन-ए-दिल और कुछ कुशादा किया
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दिल किसी बज़्म में जाते ही मचलता है 'ख़याल'
सो तबीअत कहीं बे-ज़ार नहीं भी होती
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बस चंद लम्हे पेश-तर वो पाँव धो के पल्टा है
और नूर का सैलाब सा इस आबजू में आ गया
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दश्त ओ जुनूँ का सिलसिला मेरे लहू में आ गया
ये किस जगह पे मैं तुम्हारी जुस्तुजू में आ गया
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