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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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अहमद सग़ीर

1990 | लखनऊ, भारत

हमअस्र नौजवान शायरों में शामिल, ग़ज़ल में ख़ूबसूरत अंदाज़ में मुआसिर मसाइल का बयान, रिवायत से फ़ैज़याब

हमअस्र नौजवान शायरों में शामिल, ग़ज़ल में ख़ूबसूरत अंदाज़ में मुआसिर मसाइल का बयान, रिवायत से फ़ैज़याब

अहमद सग़ीर के शेर

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ख़ुदा-या अपने कुन की लाज रख ले

तिरा शहकार ज़ाए' हो रहा है

क़ुम-बे-इज़्निल-इश्क़ से दिल ज़िंदा करेगा

ये मुझ से मोहब्बत के मसीहा ने कहा है

जवाब आए आए शिकन तो आएगी

सवाल पूछ ही लेना अगरचे डरते हुए

ज़र्द मौसम ने दरख़्तों की ज़बाँ सिल दी थी

फिर कोई फूल हँसा और ख़िज़ाँ हार गई

सोया नहीं मैं बरसों तलक जिस के ख़ौफ़ से

वो ख़्वाब अब भी चश्म-बदर हो नहीं रहा

हुक्म-ए-सुल्तान की ता'मील तुम्हारे लिए है

मैं नहीं जा रहा चाहो तो ये सर ले जाओ

वो जानता है मगर बेवफ़ा नहीं कहता

अब उस की मस्लिहतें क्या बताएँ दुख की हैं

अश्क रोको नहीं बह जाने दो वर्ना इक दिन

ये नमी जिस्म की दीवार को खा जाएगी

कैसी 'अजीब है ये मोहब्बत की ज़िंदगी

दो पत्थरों में जान पड़ी और मर गए

ग़ुरूर ख़ौफ़ अना हाथ पाँव कुछ टूटे

मगर जो टूट रहा है वो ए'तिबार ही क्यों

ये बड़ी तल्ख़ हक़ीक़त है कोई जाने तो

जुर्म-आमेज़ तख़य्युल के उधर कुछ नहीं था

भटकने के इरादे से निकलने वालो

हम से कुछ दश्त-नवर्दी का हुनर ले जाओ

ख़्वाब तो छोड़ चुके देखना बरसों पहले

देख ये क्या है जो ता'बीर हुआ चाहता है

रब्ब-ए-ज़ुलेख़ा-ओ-ख़ुदा-ए-अबू-यूसुफ़

इक हुस्न के मारे हुए दो हिज्र-ज़दा देख

मुझे चराग़ बुझाना पड़ा था मजबूरन

तुम्हारा साया नहीं जा रहा था क्या करता

फ़क़त सितारे नहीं रौशनी का बोझ भी था

ज़मीन काँप उठी आसमाँ उठाते हुए

उस के मरहम से मुकर जाने का ग़ुस्सा था मुझे

वर्ना ये ज़ख़्म-ए-जिगर बार-ए-दिगर कुछ नहीं था

हम मुत्तफ़िक़ नहीं हैं मजबूर हैं सो तय है

साहिल तिरा मुक़द्दर ठहरा भँवर हमारा

मिस्ल-ए-सराब ही सही मेरे बने रहो

सहरा में तिश्नगी का सहारा फ़रेब है

खुरच खुरच के तुझे ज़ेहन से मिटाऊँगा

मैं अपने होश के नाख़ुन ज़रा बढ़ा तो लूँ

ज़र्द चेहरों से उदासी के बिछड़ने का सबब

लोग पूछेंगे तो कह देना कि दुख हार गया

उस बूढ़ी पुजारन के ख़द-ओ-ख़ाल से पूछो

बुत उस की तमन्ना के हसीं थे कि नहीं थे

अज्नबिय्यत की झलक देखी गई लहजे में

बात डरने की है इस बात पे डर जाइए ना

ये ज़रूरी तो नहीं था कि बिछड़ ही जाते

हम तिरे साथ तिरा हिज्र मना सकते थे

दस्तरस में रहे लफ़्ज़-गरी बेहतर है

हम अगर बोल पड़ेंगे तो बहुत बोलेंगे

था मस्त बाँधने में वो तम्हीद-ए-ज़ख़्म-ए-दिल

सीने के इक शिगाफ़ पे उँगली धरे हुए

चीख़ते चीख़ते चुप हो गईं नन्ही रूहें

हर मुक़द्दस दर-ओ-दीवार पे ला'नत भेजो

मिरे ता'वीज़ मेरे गले पड़

मिरे आसेब बाहर रहे हैं

बर्फ़ पिघले तो फिर सफ़ेद बहे

आरज़ू थी चनाब वालों की

जाने दो एक रोज़ यहीं फिर के आएगा

जो कुछ है उस पे रख़्त-ए-सफ़र जानता हूँ मैं

जिसे भुला दिए जाने के दुख ने मार दिया

पता चला है उसे याद कर रहा था कोई

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