आइशा अय्यूब के शेर
इतना मसरूफ़ कर लिया ख़ुद को
ग़म भी आ कर ख़ुशी से लौट गए
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तुम्हारी ख़ुश-नसीबी है कि तुम समझे नहीं अब तक
अकेले-पन में और तन्हाई में जो फ़र्क़ होता है
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कुछ उम्र अपनी ज़ात का दुख झेलते रहे
कुछ उम्र काएनात का दुख झेलना पड़ा
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यही सबब है कि अक्सर उदास रहते हैं
जो हम से दूर हैं वो आस पास रहते हैं
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पर समेटे ख़ुद ही बैठा है परिंदा इक तरफ़
जो क़फ़स में ही नहीं उस को रिहा कैसे करूँ
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उस से कोई गिला भी करें हम तो क्या करें
वा'दा कोई किया ही नहीं उस ने आज तक
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एक लड़की चूड़ियाँ खनका रही थी और तभी
उस खनक से उठ रहा था जैसे ज़िंदानी का शोर
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किसी से भी मुख़ातिब हों कोई भी बात होती हो
तुम्हारा नाम लेने का बहाना ढूँड लेते हैं
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एक आलिम है जो सज्दों में गिला करता है
एक दरवेश है जो हालात-ए-नमनाक में ख़ुश
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उजलत में वो देखो क्या क्या छोड़ गया
अपनी बातें अपना चेहरा छोड़ गया
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मेरी माँ तो मिरी जन्नत को लिए बैठी है
ऐसे कर लो मिरे पुरखों की दुआ तुम रख लो
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ख़ाना-ब-दोश हो मुझे हिज्र-ओ-विसाल एक
ऐसे भी ख़ुश नहीं हूँ मैं वैसे भी ख़ुश नहीं
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उस को रोने से पहले कुछ हम ने यूँ तय्यारी की
कोने में तन्हाई रक्खी कमरे में फैलाई रात
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हद-ए-निगाह देखिए बनने को ग़म-गुसार
उस को भी चुप कराइए जो रो नहीं रहा
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