आकाश 'अर्श' के शेर
बैठा हुआ हूँ लग के दरीचे से महव-ए-यास
ये शाम आज मेरे बराबर उदास है
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सब अपनी ज़ात में इक अंजुमन के मुजरिम हैं
किसी वजूद में कुछ फ़र्द जैसा है ही नहीं
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मैं तेरे हदिया-ए-फुर्क़त पे कैसे नाज़ाँ हूँ
मिरी जबीं पे तिरा ज़ख़्म तक हसीन नहीं
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टैग : ज़ख़्म
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मैं ख़ुद को देखता हूँ और भी हिक़ारत से
जब अपना मर्तबा तस्लीम करने लगता हूँ
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किसी परिंद की चीख़ों ने संग-बारी की
सुकूत-ए-शाम का शीशा बिखर गया मुझ में
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हर एक सम्त तिरी याद का धुँदलका है
तिरे ख़याल का सूरज उतर गया मुझ में
ये कौन तेरे सिवा कर सका उदास मुझे
तिरे ख़याल ने छेड़ी थी गुफ़्तुगू किस की
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सुख़नाबाद में सौदाइयों की धूम सही
'मीर'-जी शे'र के फ़न में मिरे उस्ताद रहो
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टैग : मीर तक़ी मीर
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