अख़लाक़ अहमद आहन के शेर
ये कैसी जगह है कि दिल खो रहा है
बयाबाँ है सहरा है गुलशन है क्या है
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सितारों की गर्दिश दिलों का बिछड़ना
ये कैसे ख़ुदा की है कैसी ख़ुदाई
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वो जादू अदाएँ अदाओं में जादू
ये पहुँचाएँ हम को फ़ना से बक़ा तक
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राह-ए-हयात में न मिली एक पल ख़ुशी
ग़म का ये बोझ दोश पे सामान सा रहा
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तिरे फ़िराक़ में हम ने बहाए अश्क-ए-जिगर
ये सब ने चाहा मगर आए तो लहू आए
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ग़म-ए-वजूद का मातम करूँ तो कैसे जिऊँ
मगर ख़ुदा तिरे दामन पे दाग़ है कि नहीं
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तेरा जल्वा है आज तौबा-शिकन
आओ शौक़-ए-हिजाब रहने दो
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रस्म-ए-दुनिया के सलासिल में गिरफ़्तारी है
मत ठहरना कि कहीं फाँस जवाँ-तर हो जाए
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आस्तानों की क़दम-बोसी में पिन्हाँ ख़ून-ए-सर
और वुफ़ूर-ए-शौक़ में ये सर हो ख़म कुछ और है
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अगर ज़मीर है ताबूत-ए-बे-हिसी में बंद
यज़ीद-ए-शहर से बै'अत में फिर क़बाहत क्या
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ऐ जमाल-ए-बे-बदल लेकिन अदा में बे-रुख़ी
हो गईं सदियाँ कि चश्म-ए-तिश्ना तेरी मुंतज़िर
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ज़ात-ए-ख़ाकी की तहों में ख़ुफ़्ता हैं अनवा'-ए-ख़ाक
रंगहा-ए-तह-ब-तह का पेच-ओ-ख़म कुछ और है
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लुटा ये कारवाँ कब का न जाने कौन थी मंज़िल
मगर अहबाब अब भी ज़ो'म-ए-चुग़्ताई में जीते हैं
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सुकूँ कहीं भी नहीं बज़्म-ए-कामरानी में
मसाफ़तें नहीं तय होतीं ला-मकानी में
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दिलों में नूर है तर्सील-ए-गोश-ए-कर भी हो
पयाम जाते नहीं तर्ज़-ए-लन-तरानी में
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कोई जलता है तमाशा बन के उस की बज़्म में
मैं ग़रीब-ए-शहर था पिन्हाँ का पिन्हाँ जल गया
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रुस्तम है गर जो 'इश्क़ में बिन कर्र-ओ-फ़र के आ
तहमीना-e-बुताँ के यहाँ बे सिपर के आ
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है कारवान-ए-क़ुदसी-ए-हर्फ़-ए-अज़ल रवाँ
हर जेहल-ओ-ज़ुल्म-ओ-ज़ुल्मत-ओ-ज़ेर-ओ-ज़बर के साथ
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वहशत-ए-दुनिया-गज़ीदा अब हैं ज़ात-ओ-काएनात
शरह-ए-नाला गिर्या-ए-एहसास-ओ-जाँ कैसे करूँ
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ज़ो'म-ए-तुक़ा हिजाब-ए-तज़ाहुर निफ़ाक़ का
हर जा रक़म है इस में भी इज़्न ओ क़ुम-ए-दरोग़
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मफ़क़ूद है फ़िरासत-ए-विज्दाँ सगाँ में हूँ
इक हसरत-ए-मुरव्वत-ए-कज-दीदगाँ में हूँ
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इक मौज-ए-ग़म-गज़ीदगी से हैं निढाल सब
आईना-ए-दुरुस्त में सब ही सराब-पोश
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सारी दुनिया जैसे ना-मर्दी को ओढ़े हर तरफ़
बस तमाशाई खड़ी है चश्म-ए-हैरानी के साथ
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पिन्हाँ हैं सद-सवाल पस-ए-पर्दा-ए-हया
दिल दे दिया जवाब था लेकिन रहे ख़मोश
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