अख़तर मुस्लिमी के शेर
फ़रेब-ख़ुर्दा है इतना कि मेरे दिल को अभी
तुम आ चुके हो मगर इंतिज़ार बाक़ी है
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एक ही अंजाम है ऐ दोस्त हुस्न ओ इश्क़ का
शम्अ भी बुझती है परवानों के जल जाने के ब'अद
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इक़रार-ए-मोहब्बत तो बड़ी बात है लेकिन
इंकार-ए-मोहब्बत की अदा और ही कुछ है
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इंसाफ़ के पर्दे में ये क्या ज़ुल्म है यारो
देते हो सज़ा और ख़ता और ही कुछ है
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मेरे किरदार में मुज़्मर है तुम्हारा किरदार
देख कर क्यूँ मिरी तस्वीर ख़फ़ा हो तुम लोग
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ख़ुशी ही शर्त नहीं लुत्फ़-ए-ज़िंदगी के लिए
मता-ए-ग़म भी ज़रूरी है आदमी के लिए
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अजीब उलझन में तू ने डाला मुझे भी ऐ गर्दिश-ए-ज़माना
सुकून मिलता नहीं क़फ़स में न रास आता है आशियाना
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अश्क वो है जो रहे आँख में गौहर बन कर
और टूटे तो बिखर जाए नगीनों की तरह
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देहात के बसने वाले तो इख़्लास के पैकर होते हैं
ऐ काश नई तहज़ीब की रौ शहरों से न आती गाँव में
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जो बा-ख़बर थे वो देते रहे फ़रेब मुझे
तिरा पता जो मिला एक बे-ख़बर से मिला
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तुम्हारी बज़्म की यूँ आबरू बढ़ा के चले
पिए बग़ैर ही हम पाँव लड़खड़ा के चले
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हाँ ये भी तरीक़ा अच्छा है तुम ख़्वाब में मिलते हो मुझ से
आते भी नहीं ग़म-ख़ाने तक वादा भी वफ़ा हो जाता है
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दी उस ने मुझ को जुर्म-ए-मोहब्बत की वो सज़ा
कुछ बे-क़ुसूर लोग सज़ा माँगने लगे
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मुझ को मंज़ूर नहीं इश्क़ को रुस्वा करना
है जिगर चाक मगर लब पे हँसी है ऐ दोस्त
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मिरे दिल पे हाथ रख कर मुझे देने वाले तस्कीं
कहीं दिल की धड़कनों से तुझे चोट आ न जाए
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सुन के रूदाद-ए-अलम मेरी वो हँस कर बोले
और भी कोई फ़साना है तुम्हें याद कि बस
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थीं तुम्हारी जिस पे नवाज़िशें कभी तुम भी जिस पे थे मेहरबाँ
ये वही है 'अख़्तर'-ए-मुस्लिमी तुम्हें याद हो कि न याद हो
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सब्र-ओ-क़रार-ए-दिल मिरे जाने कहाँ चले गए
बिछड़े हुए न फिर मिले ऐसे हुए जुदा कि बस
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वफ़ा करो जफ़ा मिले भला करो बुरा मिले
है रीत देश देश की चलन चलन की बात है
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हर शाख़-ए-चमन है अफ़्सुर्दा हर फूल का चेहरा पज़मुर्दा
आग़ाज़ ही जब ऐसा है तो फिर अंजाम-ए-बहाराँ क्या होगा
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रह-ए-वफ़ा में लुटा कर मता-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर
किया है तेरी मोहब्बत का हक़ अदा मैं ने
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उस को भड़काऊ न दामन की हवाएँ दे कर
शोला-ए-इश्क़ मिरे दिल में दबा रहने दो
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लज़्ज़त-ए-दर्द मिली जुर्म-ए-मोहब्बत में उसे
वो सज़ा पाई है दल ने कि ख़ता झूम उठी
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कुछ इस तरह के बहारों ने गुल खिलाए हैं
कि अब तो फ़स्ल-ए-बहाराँ से डर लगे है मुझे
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