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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अख़्तर नज़्मी

1930 - 1997 | ग्वालियर, भारत

अख़्तर नज़्मी के दोहे

भारी बोझ पहाड़ सा कुछ हल्का हो जाए

जब मेरी चिंता बढ़े माँ सपने में आए

आदत से लाचार है आदत नई अजीब

जिस दिन खाया पेट भर सोया नहीं ग़रीब

छेड़-छाड़ करता रहा मुझ से बहुत नसीब

मैं जीता तरकीब से हारा वही ग़रीब

लौटा गेहूँ बेच कर अपने गाँव किसान

बिटिया गुड़िया सी लगी पत्नी लगी जवान

खोल दिए कुछ सोच कर सब पिंजरों के द्वार

अब कोई पंछी नहीं उड़ने को तय्यार

नदिया ने मुझ से कहा मत मेरे पास

पानी से बुझती नहीं अंतर्मन की प्यास

ज़िक्र वही आठों पहर वही कथा दिन रात

भूल सके तो भूल जा गए दिनों की बात

जीवन भर जिस ने किए ऊँचे पेड़ तलाश

बेरी पर लटकी मिली उस चिड़िया की लाश

यार खिसकती जाएगी मुट्ठी में से रेत

ये तो मुमकिन ही नहीं चिड़िया चुगे खेत

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