अख़्तर शाहजहाँपुरी के शेर
अभी तहज़ीब का नौहा न लिखना
अभी कुछ लोग उर्दू बोलते हैं
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टैग : उर्दू
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ये मो'जिज़ा हमारे ही तर्ज़-ए-बयाँ का था
उस ने वो सुन लिया था जो हम ने कहा न था
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कोई मंज़र नहीं बरसात के मौसम में भी
उस की ज़ुल्फ़ों से फिसलती हुई धूपों जैसा
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वो जुगनू हो सितारा हो कि आँसू
अँधेरे में सभी महताब से हैं
अपनों से जंग है तो भले हार जाऊँ मैं
लेकिन मैं अपने साथ सिपाही न लाऊँगा
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पुराने वक़्तों के कुछ लोग अब भी कहते हैं
बड़ा वही है जो दुश्मन को भी मुआ'फ़ करे
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तुम्हारे ख़त कभी पढ़ना कभी तरतीब से रखना
अजब मशग़ूलियत रहती है बेकारी के मौसम में
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मैं झूट को सच्चाई के पैकर में सजाता
क्या कीजिए मुझ को ये हुनर ही नहीं आया
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लोग ये सोच के ही परेशान हैं
मैं ज़मीं था तो क्यूँ आसमाँ हो गया
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लाज रखनी पड़ गई है दोस्तों की
हम भरी महफ़िल में झूटे हो गए हैं
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रंज-ओ-ग़म ठोकरें मायूसी घुटन बे-ज़ारी
मेरे ख़्वाबों की ये ता'बीर भी हो सकती है
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रंज-ओ-ग़म सहने की आदत हो गई है
ज़िंदा रहने के सलीक़े दे गया वो
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चलो अम्न-ओ-अमाँ है मय-कदे में
वहीं कुछ पल ठहर कर देखते हैं
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टैग : अम्न
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ये भी क्या बात कि मैं तेरी अना की ख़ातिर
तेरी क़ामत से ज़ियादा तिरा साया चाहूँ
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जुगनू था कहकशाँ था सितारा था या गुहर
आँसू किसी की आँख से जब तक गिरा न था
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जाम-ए-शराब अब तो मिरे सामने न रख
आँखों में नूर हाथ में जुम्बिश कहाँ है अब
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दिलों में कर्ब बढ़ता जा रहा है
मगर चेहरे अभी शादाब से हैं
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ये मुंसिफ़ान-ए-शहर हैं ये पासबान-ए-शहर
इन को बताओ नाम जो बलवाइयों के हैं
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वो इक लम्हा जो तेरे वस्ल का था
बयाज़-ए-हिज्र पर लिक्खा हुआ है
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ज़रा यादों के ही पत्थर उछालो
नवाह-ए-जाँ में सन्नाटे बहुत हैं
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