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अंबरीन हसीब अंबर

1981 | कराची, पाकिस्तान

मुशायरों की लोकप्रिय पाकिस्तानी शायरा

मुशायरों की लोकप्रिय पाकिस्तानी शायरा

अंबरीन हसीब अंबर के शेर

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दुनिया तो हम से हाथ मिलाने को आई थी

हम ने ही ए'तिबार दोबारा नहीं किया

फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने

फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ

तअ'ल्लुक़ जो भी रक्खो सोच लेना

कि हम रिश्ता निभाना जानते हैं

मुझ में अब मैं नहीं रही बाक़ी

मैं ने चाहा है इस क़दर तुम को

अब के हम ने भी दिया तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का जवाब

होंट ख़ामोश रहे आँख ने बारिश नहीं की

उड़ गए सारे परिंदे मौसमों की चाह में

इंतिज़ार उन का मगर बूढे शजर करते रहे

उम्र-भर के सज्दों से मिल नहीं सकी जन्नत

ख़ुल्द से निकलने को इक गुनाह काफ़ी है

इस आरज़ी दुनिया में हर बात अधूरी है

हर जीत है ला-हासिल हर मात अधूरी है

तुम ने किस कैफ़ियत में मुख़ातब किया

कैफ़ देता रहा लफ़्ज़-ए-'तू' देर तक

हम तो सुनते थे कि मिल जाते हैं बिछड़े हुए लोग

तू जो बिछड़ा है तो क्या वक़्त ने गर्दिश नहीं की

ध्यान में कर बैठ गए हो तुम भी नाँ

मुझे मुसलसल देख रहे हो तुम भी नाँ

बन के हँसी होंटों पर भी रहते हो

अश्कों में भी तुम बहते हो तुम भी नाँ

मोहब्बत और क़ुर्बानी में ही ता'मीर मुज़्मर है

दर-ओ-दीवार से बन जाए घर ऐसा नहीं होता

भूल जोते हैं मुसाफ़िर रस्ता

लोग कहते हैं कहानी फिर भी

जो तुम हो तो ये कैसे मान लूँ मैं

कि जो कुछ है यहाँ बस इक गुमाँ है

क्या जानिए क्या सोच के अफ़्सुर्दा हुआ दिल

मैं ने तो कोई बात पुरानी नहीं लिक्खी

दिल जिन को ढूँढता है न-जाने कहाँ गए

ख़्वाब-ओ-ख़याल से वो ज़माने कहाँ गए

वो जंग जिस में मुक़ाबिल रहे ज़मीर मिरा

मुझे वो जीत भी 'अम्बर' होगी हार से कम

ज़िंदगी में कभी किसी को भी

मैं ने चाहा नहीं मगर तुम को

क्या ख़ूब तमाशा है ये कार-गह-ए-हस्ती

हर जिस्म सलामत है हर ज़ात अधूरी है

इक हसीं ख़्वाब कि आँखों से निकलता ही नहीं

एक वहशत है कि ता'बीर हुई जाती है

तश्हीर तो मक़्सूद नहीं क़िस्सा-ए-दिल की

सो तुझ को लिखा तेरी निशानी नहीं लिक्खी

तिरे फ़िराक़ में दिल का अजीब आलम है

कुछ ख़ुमार से बढ़ कर कुछ ख़ुमार से कम

लफ़्ज़ की हुरमत मुक़द्दम है दिल-ओ-जाँ से मुझे

सच तआ'रुफ़ है मिरे हर शे'र हर तहरीर का

अयाँ दोनों से तक्मील-ए-जहाँ है

ज़मीं गुम हो तो फिर क्या आसमाँ है

मानूस बाम-ओ-दर से नज़र पूछती रही

उन में बसे वो लोग पुराने कहाँ गए

आसमाँ किस लिए इस दर्जा बरहमी

हम ने तो तिरी सम्त इशारा नहीं किया

पैरवी से मुमकिन है कब रसाई मंज़िल तक

नक़्श-ए-पा मिटाने को गर्द-ए-राह काफ़ी है

हज़ार ख़ौफ़ मुसल्लत रहे हैं इंसाँ पर

मगर हमें तो हमी से डरा दिया गया है

तुम्हारी याद का चेहरा हमारे दर्द का रंग

निखर गए हैं सभी अश्क-बार होने से

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