अंबरीन हसीब अंबर के शेर
दुनिया तो हम से हाथ मिलाने को आई थी
हम ने ही ए'तिबार दोबारा नहीं किया
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फ़ैसला बिछड़ने का कर लिया है जब तुम ने
फिर मिरी तमन्ना क्या फिर मिरी इजाज़त क्यूँ
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तअ'ल्लुक़ जो भी रक्खो सोच लेना
कि हम रिश्ता निभाना जानते हैं
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अब के हम ने भी दिया तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का जवाब
होंट ख़ामोश रहे आँख ने बारिश नहीं की
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मुझ में अब मैं नहीं रही बाक़ी
मैं ने चाहा है इस क़दर तुम को
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उड़ गए सारे परिंदे मौसमों की चाह में
इंतिज़ार उन का मगर बूढे शजर करते रहे
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टैग : शजर
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इस आरज़ी दुनिया में हर बात अधूरी है
हर जीत है ला-हासिल हर मात अधूरी है
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उम्र-भर के सज्दों से मिल नहीं सकी जन्नत
ख़ुल्द से निकलने को इक गुनाह काफ़ी है
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हम तो सुनते थे कि मिल जाते हैं बिछड़े हुए लोग
तू जो बिछड़ा है तो क्या वक़्त ने गर्दिश नहीं की
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तुम ने किस कैफ़ियत में मुख़ातब किया
कैफ़ देता रहा लफ़्ज़-ए-'तू' देर तक
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ध्यान में आ कर बैठ गए हो तुम भी नाँ
मुझे मुसलसल देख रहे हो तुम भी नाँ
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बन के हँसी होंटों पर भी रहते हो
अश्कों में भी तुम बहते हो तुम भी नाँ
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मोहब्बत और क़ुर्बानी में ही ता'मीर मुज़्मर है
दर-ओ-दीवार से बन जाए घर ऐसा नहीं होता
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क्या जानिए क्या सोच के अफ़्सुर्दा हुआ दिल
मैं ने तो कोई बात पुरानी नहीं लिक्खी
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जो तुम हो तो ये कैसे मान लूँ मैं
कि जो कुछ है यहाँ बस इक गुमाँ है
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भूल जोते हैं मुसाफ़िर रस्ता
लोग कहते हैं कहानी फिर भी
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दिल जिन को ढूँढता है न-जाने कहाँ गए
ख़्वाब-ओ-ख़याल से वो ज़माने कहाँ गए
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वो जंग जिस में मुक़ाबिल रहे ज़मीर मिरा
मुझे वो जीत भी 'अम्बर' न होगी हार से कम
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ज़िंदगी में कभी किसी को भी
मैं ने चाहा नहीं मगर तुम को
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क्या ख़ूब तमाशा है ये कार-गह-ए-हस्ती
हर जिस्म सलामत है हर ज़ात अधूरी है
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तिरे फ़िराक़ में दिल का अजीब आलम है
न कुछ ख़ुमार से बढ़ कर न कुछ ख़ुमार से कम
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इक हसीं ख़्वाब कि आँखों से निकलता ही नहीं
एक वहशत है कि ता'बीर हुई जाती है
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तश्हीर तो मक़्सूद नहीं क़िस्सा-ए-दिल की
सो तुझ को लिखा तेरी निशानी नहीं लिक्खी
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अयाँ दोनों से तक्मील-ए-जहाँ है
ज़मीं गुम हो तो फिर क्या आसमाँ है
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लफ़्ज़ की हुरमत मुक़द्दम है दिल-ओ-जाँ से मुझे
सच तआ'रुफ़ है मिरे हर शे'र हर तहरीर का
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मानूस बाम-ओ-दर से नज़र पूछती रही
उन में बसे वो लोग पुराने कहाँ गए
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ऐ आसमाँ किस लिए इस दर्जा बरहमी
हम ने तो तिरी सम्त इशारा नहीं किया
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पैरवी से मुमकिन है कब रसाई मंज़िल तक
नक़्श-ए-पा मिटाने को गर्द-ए-राह काफ़ी है
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हज़ार ख़ौफ़ मुसल्लत रहे हैं इंसाँ पर
मगर हमें तो हमी से डरा दिया गया है
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तुम्हारी याद का चेहरा हमारे दर्द का रंग
निखर गए हैं सभी अश्क-बार होने से
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