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अमजद नजमी

1899 - 1974

अमजद नजमी के शेर

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वफ़ा की आड़ में क्या क्या हुई जफ़ा हम पर

जो दोस्ती यही ठहरी तो दुश्मनी क्या है

जब दिल ही नहीं है पहलू में फिर इश्क़ का सौदा कौन करे

अब उन से मोहब्बत कौन करे अब उन की तमन्ना कौन करे

किस ग़लत-फ़हमी में अपनी उम्र सारी कट गई

इक वफ़ा-ना-आश्ना को बा-वफ़ा समझा था मैं

वही सुब्ह-ओ-मसा वही शब-ओ-रोज़

ज़िंदगी है वबाल क्या कहिए

कुछ आलिम समझते हैं कुछ जाहिल समझते हैं

मोहब्बत की हक़ीक़त को बस अहल-ए-दिल समझते हैं

उम्मीद-ए-वफ़ा के पेश-ए-नज़र मैं उन की जफ़ाएँ भूल गया

है मुस्तक़बिल पर आँख मिरी माज़ी को भुलाता जाता हूँ

इसी का नाम शायद ज़िंदगी है

ख़ुशी की इक घड़ी तो इक ग़मी की

कोई समझे समझे इस हक़ीक़त को मगर 'नजमी'

हम अपने दर्द-ए-दिल को इश्क़ का हासिल समझते हैं

आसाँ नहीं विसाल तो दुश्वार भी नहीं

मुश्किल में हूँ ये मुश्किल-ए-आसाँ लिए हुए

बछड़ा हुआ जैसे कोई मिलते ही लिपट जाए

यूँ तीर तिरा के लिपटता है जिगर से

दुनिया बाइ'स-ए-ग़फ़लत उक़्बा वज्ह-ए-हुश्यारी

रहे जो तुझ से ग़ाफ़िल हम उसे ग़ाफ़िल समझते हैं

बता कि ये भी कोई शान-ए-बे-नियाज़ी है

सुनी हाए कोई तू ने गुफ़्तनी अपनी

ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं थी मेहरबाँ किस की

बू बसी है दिमाग़ में अब तक

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