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अम्मार इक़बाल

1986 | लाहौर, पाकिस्तान

अम्मार इक़बाल के शेर

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मैं ने चाहा था ज़ख़्म भर जाएँ

ज़ख़्म ही ज़ख़्म भर गए मुझ में

एक ही बात मुझ में अच्छी है

और मैं बस वही नहीं करता

मैं ने तस्वीर फेंक दी है मगर

कील दीवार में गड़ी हुई है

एक दरवेश को तिरी ख़ातिर

सारी बस्ती से इश्क़ हो गया है

हाथ जिस को लगा नहीं सकता

उस को आवाज़ तो लगाने दो

ये जो मैं हूँ ज़रा सा बाक़ी हूँ

वो जो तुम थे वो मर गए मुझ में

उस ने नासूर कर लिया होगा

ज़ख़्म को शाएरी बनाते हुए

मैं आईनों को देखे जा रहा था

अब इन से बात भी करने लगा हूँ

ख़ुद ही जाने लगे थे और ख़ुद ही

रास्ता रोक कर खड़े हुए हैं

और कितनी घुमाओगे दुनिया

हम तो सर थाम कर खड़े हुए हैं

कैसे कैसे बना दिए चेहरे

अपनी बे-चेहरगी बनाते हुए

कैसा मुझ को बना दिया 'अम्मार'

कौन सा रंग भर गए मुझ में

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