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अनअम शहज़ादी

अनअम शहज़ादी के शेर

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मैं समझती हूँ जिसे यौम-ए-विलादत अपना

दर-हक़ीक़त वो मिरी मौत का पहला दिन था

मिरे दिल में दिसम्बर जम गया है

पिघल कर साल भर बहता रहेगा

क्या मुसीबत है ज़िंदगी या'नी

मुझ को जीना पड़ेगा मरने तक

तलाशती हूँ मैं दिल की किताब में अक्सर

वो फूल तू ने जो मुझ को कभी दिया ही नहीं

कूड़े-दानों में लाश की सूरत

मैं ने देखे हैं प्यार के तोहफ़े

जैसे दीमक-ज़दा कोई लकड़ी

यूँ तिरा हिज्र खाए जाता है

जो अलग हो गया था झुरमुट से

उस परिंदे की ख़ैर हो मौला

तेरी यादों की बाँध कर गठड़ी

मैं बहुत दूर फेंक आई हूँ

नई नई तो मैं शहर-ए-सुख़न में आई हूँ

अभी तो मुझ पे पत्थर उछालिए साहब

हिज्र कुछ इस तरह अता हो मुझे

मेरा जिस में विसाल हो जाए

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