अनस ख़ान के दोहे
उम्र से धोका खा गए परखा नहीं ज़मीर
बच्चा बच्चा ही रहा बढ़ता रहा शरीर
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ऐ सतरंगी रौशनी कैसी शक्ल बनाई
जो रंग अपनाया नहीं वो ही दिया दिखाई
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अपनी ज़िद की आग में ज़ख़्मी किए गुलाब
इक वहशी ने डाल कर कलियों पर तेज़ाब
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ये दुनिया की रीत है या दुनिया का दीन
जो ऊपर चढ़ने लगे खींचे उसे ज़मीन
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मुल्ला पंडित सब यहाँ करते रहे फ़रेब
सोच रहा न्यूटन वहाँ गिरता क्यों है सेब
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मस्जिद में पैदा हुआ सीखी वही ज़बान
तोता मंदिर पे चढ़ा देने लगा अज़ान
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नारी जग की नींव है रिश्तों का आधार
जैसी नज़रें डालिए वैसा ले आकार
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बड़े शहर से अपनी दूरी रखिए मीलों मील
जितनी दूर समुंदर से हो उतनी मीठी झील
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दुनिया एक सराब है पुख़्ता हुआ यक़ीन
मैं जितना चलता गया उतनी चली ज़मीन
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मज़हब ने जो ठोंक दी हिली नहीं वो कील
क़ुदरत हर मख़्लूक़ को रोज़ करे तब्दील
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रावन ज़िंदा ही रहा सदियों जला शरीर
तरकश में था ही नहीं कभी राम के तीर
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अपने अंदर मैं गया इक दिन करने सैर
इतना आगे बढ़ गया पीछे छूटे पैर
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इन आँखों में क़ैद है इस दुनिया का सार
बाहर ख़ाली अक्स है अंदर है संसार
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पंछी उड़ कर चल दिया सूख गई जब झील
मौत है असली ज़िंदगी मौत नहीं तकमील
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दिन में मज़हब जागता लाख भली है रात
हर तन लागे एक सा इक ही लागे ज़ात
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क्या माँगें भगवान से क्या देगा ये दैर
रिक्शा ख़ुद चलता नहीं बिना चलाए पैर
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पुरखों की तस्वीर गले में वाहिद बनी दलील
सारे घर का मान सँभाले एक अकेली कील
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पहले हुआ किसान का बालू बालू खेत
फिर आँधी महँगाई की भर गई मुँह में रेत
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तन बूढ़ा होने लगा धुंधले हो गए ख़्वाब
रंग स्याही का उड़ा मिटने लगी किताब
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हर करवट पर हलचल होए मन भी आपा खोए
कौन बसा है मेरे अंदर खनन खनन खन होए
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अपने ही सब हाथ छुड़ा लें बुरा चले जो काल
उम्रें जितनी बढ़ती जाएँ उड़ते जाएँ बाल
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रूह नहीं ये रुई है इंसाँ एक लिहाफ़
जब जब ये मैला हुआ बदला गया ग़िलाफ़
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जिन काँधों पर झूल कर छूता था आकाश
इक दरवाज़े में मिली उसी पेड़ की लाश
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कल ये ही बन जाएगी उसी गले की फाँस
आज हवा अनमोल है खींच ज़ियादा साँस
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तू मुझ में महदूद है मैं तुझ में महदूद
मेरे साए में तिरा दिखने लगा वजूद
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एक आँख में दो पतली हूँ तब होगा आधार
इक पुतली अंतर्मन देखे इक देखे संसार
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रूह बदन के साथ थी जग ने दे दी ताप
पानी नीचे रह गया ऊपर उड़ गई भाप
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तू तो फ़क़त ज़मीन है फिर भी तिरा क़ुसूर
गर इमली के बीज से निकला नहीं खजूर
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छुपा गया गहराई में दरिया अपना हाल
मैं जब भी अंदर गया बाहर दिया उछाल
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कोई सँभाले दैर तो कोई बचाए दीन
'अनस' बचा लो आप ही मरती हुई ज़मीन
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सब तेरी साइंस है फिर ये कैसा योग
ख़ुदा नुमाइंदे तिरे इतने पिछड़े लोग
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मिले जो नैनन मद-भरे धड़का मन का द्वार
तन के इस दरबार का मन है चौकीदार
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बदन अँधेरी कोठरी खोजो दिया-सलाई
'अनस' जगाओ चेतना रौशन करो ख़ुदाई
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मछली जोगन हो गई छोड़ दिया है ताल
हम ने अनजाने कभी फेंक दिया था जाल
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मन के भीतर प्रेम है बाहर कूच कठोर
उतना मीठा जल मिले जितना गहरा बोर
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पैरों से कमज़ोर थी फिर भी पल्टा खेल
लिपट लिपट कर पेड़ से ऊपर चढ़ गई बेल
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आँखों में पानी भरा पानी में गिर्दाब
ख़्वाब हथेली पर लिए खड़ा रहा तालाब
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पेड़ ज़र्द होने लगे फूल हुए रसहीन
लहू शजर का खींच कर पीने लगी ज़मीन
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सुध-बुध खो गई बाँवरी जिस दिन खुला फ़रेब
नदिया में गागर मिली पनघट पर पाज़ेब
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ये कह कर तलवार ने छोड़ी आज मियान
क़ैद हिसार-ए-जिस्म में अब न रहेगी जान
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घिस गई हड्डी रीढ़ की झुकने लगा शरीर
लोच खा गई छत मिरी बिखर गए शहतीर
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शराबोर पलकें हुईं काजल गया है फैल
अश्कों के सैलाब में बिखर गई खपरैल
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ख़ुद को छोटा कर लिया ख़ुद में ख़ुद को भींच
बिल-आख़िर चरख़ाब ने लिया समुंदर खींच
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फ़ितरत से की इस क़दर इंसानों ने छेड़
निकला जंगल जंग पर ले मुट्ठी भर पेड़
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बाहर की इक ठेस भी पैदा कर दे खोट
अण्डा जीवन पाए जब हो अन्दर से चोट
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अपनों को जब हम ने परखा खुल गई सब की पोल
जिगर कलेजा थर-थर काँपे जीभ न खाई झोल
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माज़ी कब का सो गया सर पर चादर तान
'अनस' कहाँ से जिस्म पर आने लगे निशान
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दूर क़यामत रोक दे कर मुझ को बर्बाद
मेरे ख़ातिर आए क्यों दुनिया पर उफ़्ताद
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हम ने की है गाए की मज़हब से पहचान
लेकिन देखा गाए ने सब को एक समान
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कूज़ा-गर की उँगलियाँ रूह मिरी मढ़ जाएँ
हौले से तन को छुएँ अंदर तक गढ़ जाएँ
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