अनीस अंसारी के शेर
मैं ने आँखों में जला रखा है आज़ादी का तेल
मत अंधेरों से डरा रख कि मैं जो हूँ सो हूँ
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नाम तेरा भी रहेगा न सितमगर बाक़ी
जब है फ़िरऔन न चंगेज़ का लश्कर बाक़ी
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बड़ा आज़ार-ए-जाँ है वो अगरचे मेहरबाँ है वो
अगरचे मेहरबाँ है वो बड़ा आज़ार-ए-जाँ है वो
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तुम को भी पहचान नहीं है शायद मेरी उलझन की
लेकिन हम मिलते रहते तो अच्छा ही रहता जानम
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कभी दरवेश के तकिया में भी आ कर देखो
तंग-दस्ती में भी आराम मयस्सर निकला
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तिरी महफ़िल में सब बैठे हैं आ कर
हमारा बैठना दुश्वार क्यूँ है
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हिज्र के छोटे गाँव से हम ने शहर-ए-वस्ल को हिजरत की
शहर-ए-वस्ल ने नींद उड़ा कर ख़्वाबों को पामाल किया
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लाश क़ातिल ने खुली फेंक दी चौराहे पर
देखने वाला कोई घर से न बाहर निकला
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हर एक शख़्स तुम्हारी तरह नहीं होता
कोई किसी से मोहब्बत कहाँ करे कैसे
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बना कर रख तू घर अच्छा रहेगा
तू मालिक बन किराए-दार क्यूँ है
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तुम दर्द की लज़्ज़त क्या जानो कब तुम ने चखे हैं ज़हर-ए-सुबू
हम अपने वजूद के शाहिद हैं संगसार हुए शमशीर हुए
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जो परिंदे उड़ नहीं सकते अब उन की ख़ैर हो
आने वाला है इसी जानिब शिकारी हाए हाए
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एक ग़म होता तो सीने से लगा लेता कोई
ग़म का अम्बार उठाने पे न पहुँचा आख़िर
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हिज्र में वैसे भी आती है मुसीबत जान पर
पर रक़ीबों की अलग है ख़ंदा-कारी हाए हाए
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तोतली उम्र में जो बच्चा ज़रा मुशफ़िक़ था
कुछ बड़ा हो के दहाने पे न पहुँचा आख़िर
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तिरी आँखों ने धोया है मुझे यूँ
मैं बिल्कुल साफ़-सुथरा हो गया हूँ
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