अनीस अशफ़ाक़ के शेर
इस पे हैराँ हैं ख़रीदार कि क़ीमत है बहुत
मेरे गौहर की तब-ओ-ताब नहीं देखते हैं
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ये ख़ाना हमेशा से वीरान है
कहाँ कोई दिल के मकाँ में रहा
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देखा है किसी आहू-ए-ख़ुश-चश्म को उस ने
आँखों में बहुत उस की चमक आई हुई है
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हम तेरे आसमान में ऐ हर्फ़-ए-ए'तिबार
उड़ना तो चाहते हैं मगर पर कहाँ से लाएँ
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दस्तक पे अब घरों से कोई बोलता नहीं
पहले ये शहर शहर-ए-'अदम-रफ़्तगाँ न था
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क्यूँ नहीं होते मुनाजातों के मअनी मुन्कशिफ़
रम्ज़ बन जाता है क्यूँ हर्फ़-ए-दुआ हम से सुनो
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टैग : दुआ
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न मेरे हाथ से छुटना है मेरे नेज़े को
न तेरे तीर को तेरी कमाँ में रहना है
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उस की मुट्ठी में जवाहिर थे नज़र मेरी तरफ़
और मुझे पैराया-ए-अर्ज़-ए-हुनर आता न था
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जौहर बग़ैर क़ीमत-ए-आईना कुछ नहीं
आईना ले भी आएँ तो जौहर कहाँ से लाएँ
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हर तरफ़ गहरी सियाही है मुहीत-ए-'इश्क़ में
एक शम'-ए-दिल के बुझने से धुआँ कितना हुआ
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तो क्या हुआ जो गला ये रसन में रहने लगा
मज़ा तो दाना-ए-हक़ का दहन में रहने लगा
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जो सा'अत-ए-नुमूद वही वक़्त-ए-रफ़्त-ओ-बूद
दरिया में कितनी देर सफ़र है हुबाब का
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