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अंजुम बाराबंकवी

1964 | भोपाल, भारत

अंजुम बाराबंकवी के शेर

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ये बादशाह नहीं है फ़क़ीर है सूरज

हमेशा रात की झोली से दिन निकालता है

मुझे सोने की क़ीमत मत बताओ

मैं मिट्टी हूँ मिरी अज़्मत बहुत है

जिस बात का मतलब ख़ुश्बू है हर गाँव के कच्चे रस्ते पर

उस बात का मतलब बदलेगा जब पक्की सड़क जाएगी

जो दोस्तों की मोहब्बत से जी नहीं भरता

तो आस्तीन में दो-चार साँप पाल के रख

मशहूर भी हैं बदनाम भी हैं ख़ुशियों के नए पैग़ाम भी हैं

कुछ ग़म के बड़े इनआ'म भी हैं पढ़िए तो कहानी काम की है

घर-बार छोड़ कर वो फ़क़ीरों से जा मिले

चाहत ने बादशाहों को महकूम कर दिया

ग़ैर तो आँसू पोछेंगे

धोका देंगे अपने लोग

जो सारे दिन की थकन ओढ़ कर मैं सोता हूँ

तो सारी रात मिरा घर सफ़र में रहता है

आसमान हर्फ़ को फिर ए'तिबार दे

वर्ना हक़ीक़तों को कहानी लिखेंगे लोग

तुझे तो कितनी बहारें सलाम भेजेंगी

अभी ये फूल सा चेहरा ज़रा सँभाल के रख

मैं ने सूरज की तरह ख़ुद को बनाया जिस दिन

देखने आएँगे ये मग़रिब-ओ-मशरिक़ मुझ को

ज़रा महफ़ूज़ रस्तों से गुज़रना

तुम्हारी शहर में शोहरत बहुत है

किताब-ए-इश्क़ के जो मो'तबर रिसाले हैं

उन्हीं में हुस्न के कुछ मुस्तनद हवाले हैं

शोहरत की रौशनी हो कि नफ़रत की तीरगी

क्या क्या उसे दिया है ख़ुदा ने पता करो

मेराज-ए-अक़ीदत है कि ता'वीज़ की सूरत

बाज़ू पे कोई ख़ाक-ए-वतन बाँधे हुए है

तुझ को ख़बर नहीं है मगर इक तिरे बग़ैर

ये दिल-पसंद शहर भी ख़ाली लगा मुझे

मैं ऐसे दर का गदा हूँ जहाँ पे मोती क्या

हज़ार बार मुझे संग आब-दार मिले

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