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अंजुम ख़याली

1936 - 1997 | इंग्लैंड

अंजुम ख़याली के शेर

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कोई तोहमत हो मिरे नाम चली आती है

जैसे बाज़ार में हर घर से गली आती है

कहाँ मिला मैं तुझे ये सवाल ब'अद का है

तू पहले याद तो कर किस जगह गँवाया मुझे

मिरे मज़ार पे कर दिए जलाएगा

वो मेरे ब'अद मिरी ज़िंदगी में आएगा

कुछ तसावीर बोल पड़ती हैं

सब की सब बे-ज़बाँ नहीं होतीं

अँधेरी रात है साया तो हो नहीं सकता

ये कौन है जो मिरे साथ साथ चलता है

बाज़ वादे किए नहीं जाते

फिर भी उन को निभाया जाता है

शब को इक बार खुल के रोता हूँ

फिर बड़े सुख की नींद सोता हूँ

इस नाम का कोई भी नहीं है

जिस नाम से हम पुकारते हैं

जाँ क़र्ज़ है सो उतारते हैं

हम उम्र कहाँ गुज़ारते हैं

मुझे कुछ देर रुकना चाहिए था

वो शायद देख ही लेता पलट कर

अज़ाँ पे क़ैद नहीं बंदिश-ए-नमाज़ नहीं

हमारे पास तो हिजरत का भी जवाज़ नहीं

मुझे हँसी भी मिरे हाल पर नहीं आती

वो ख़ुद भी रोएगा औरों को भी रुलाएगा

आँख झपकीं तो इतने अर्से में

जाने कितने बरस गुज़र जाएँ

उम्र भर जंगल में रह सकता हूँ मैं

इस में घर जैसी फ़ज़ा मौजूद है

जब तक मैं पहुँचता हूँ कड़ी धूप में चल कर

दीवार का साया पस-ए-दीवार हो जाए

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