अंजुम सलीमी के शेर
उदासी खींच लाई है यहाँ तक
मैं आँसू था समुंदर में पड़ा हूँ
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किसी तरह से नज़र मुतमइन नहीं होती
हर एक शय को दोबारा बदल के देखता हूँ
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तेरे अंदर की उदासी के मुशाबह हूँ मैं
ख़ाल-ओ-ख़द से नहीं आवाज़ से पहचान मुझे
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मैं आज ख़ुद से मुलाक़ात करने वाला हूँ
जहाँ में कोई भी मेरे सिवा न रह जाए
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ख़ाक छानी न किसी दश्त में वहशत की है
मैं ने इक शख़्स से उजरत पे मोहब्बत की है
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वो इक दिन जाने किस को याद कर के
मिरे सीने से लग के रो पड़ा था
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शब-ए-जमाल सलामत रहें तिरे परी-ज़ाद
जिन्हें मैं ख़्वाब सुनाता हूँ रक़्स करता हूँ
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माज़रत रौंदे हुए फूलों से कर लूँ तो चलूँ
मुंतज़िर शहर में ताख़ीर से आया हुआ मैं
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ज़मीन हाँपने लगती है इक जगह रुक कर
मैं उस का हाथ बटाता हूँ रक़्स करता हूँ
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मेरी मिट्टी से बहुत ख़ुश हैं मिरे कूज़ा-गर
वैसा बन जाता हूँ मैं जैसा बनाते हैं मुझे
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बस अंधेरे ने रंग बदला है
दिन नहीं है सफ़ेद रात है ये
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मिट के आसूदा हो गया हूँ मैं
ख़ाक में ख़ाक-ज़ाद मिल गया है
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मैं अंधेरे में हूँ मगर मुझ में
रौशनी ने जगह बना ली है
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ऐसी क्या बीत गई मुझ पे कि जिस के बाइस
आब-दीदा हैं मिरे हँसने हँसाने वाले
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टैग : आब दीदा
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हिज्र को बीच में नहीं छोड़ा
सब से पहले उसे तमाम किया
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किस शफ़क़त में गुँधे हुए मौला माँ बाप दिए
कैसी प्यारी रूहों को मेरी औलाद किया
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ख़ुद तक मिरी रसाई नहीं हो रही अभी
हैरत है उस तरफ़ भी नहीं हूँ जिधर मैं हूँ
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दर्द से भरता रहा ज़ात के ख़ाली-पन को
थोड़ा थोड़ा यूँही भरपूर किया मैं ने मुझे
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ये मोहब्बत का जो अम्बार पड़ा है मुझ में
इस लिए है कि मिरा यार पड़ा है मुझ में
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ठीक से याद भी नहीं अब तो
इश्क़ ने मुझ में कब क़याम किया
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कैसी होती हैं उदासी की जड़ें
आ दिखाऊँ तुझे दिल के रेशे
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किस ज़माने में मुझ को भेज दिया
मुझ से तो राय भी न चाही मिरी
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तू मिरे सब्र का अंदाज़ा लगा सकता है
तेरी सोहबत में तिरा हिज्र गुज़ारा है मियाँ
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कुछ तो खिंची खिंची सी थी साअत विसाल की
कुछ यूँ भी फ़ासले पे मुझे रख दिया गया
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तुझ से ये कैसा तअल्लुक़ है जिसे जब चाहूँ
ख़त्म कर देता हूँ आग़ाज़ भी कर लेता हूँ
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कहने सुनने के लिए और बचा ही क्या है
सो मिरे दोस्त इजाज़त मुझे रुख़्सत किया जाए
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उठाए फिरता रहा मैं बहुत मोहब्बत को
फिर एक दिन यूँही सोचा ये क्या मुसीबत है
कहो हवा से कि इतनी चराग़-पा न फिरे
मैं ख़ुद ही अपने दिए को बुझाने वाला हूँ
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हाँ ज़माने की नहीं अपनी तो सुन सकता था
काश ख़ुद को ही कभी बैठ के समझाता मैं
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मैं दिल-ए-गिरफ़्ता तुझे गुनगुनाता रहता हूँ
बहुत दिनों से मिरे यार ज़ेर-ए-लब है तू
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माँ की दुआ न बाप की शफ़क़त का साया है
आज अपने साथ अपना जनम दिन मनाया है
मैं ख़ुद से मिल के कभी साफ़ साफ़ कह दूँगा
मुझे पसंद नहीं है मुदाख़लत अपनी
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इतना तरसाया गया मुझ को मोहब्बत से कि अब
इक मोहब्बत पे क़नाअत नहीं कर सकता मैं
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अध-बुने ख़्वाबों का अम्बार पड़ा है दिल में
आँख वालों के लिए है ये अमानत मेरी
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चल तो सकता था मैं भी पानी पर
मैं ने दरिया का एहतिराम किया
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जस्त भरता हुआ फ़र्दा के दहाने की तरफ़
जा निकलता हूँ किसी गुज़रे ज़माने की तरफ़
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एक दिन मेरी ख़ामुशी ने मुझे
लफ़्ज़ की ओट से इशारा किया
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टैग : ख़ामोशी
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मैं एक एक तमन्ना से पूछ बैठा हूँ
मुझे यक़ीं नहीं आता कि मेरा सब है तू
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मुझे पता है कि बर्बाद हो चुका हूँ मैं
तू मेरा सोग मना मुझ को सोगवार न कर
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उस ख़ुदा की तलाश है 'अंजुम'
जो ख़ुदा हो के आदमी सा लगे
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ये भी आग़ाज़-ए-मोहब्बत में बहुत है मुझ को
देखता लेता हूँ उसे हाथ लगा लेता हूँ
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आगे बिछी पड़ी रहीं उस के बदन की नेमतें
उस ने बहुत कहा मगर मैं ने उसे चखा नहीं
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आँख खुल कर अभी मानूस नहीं हो पाती
और दीवार से तस्वीर बदल जाती है
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साथ बारिश में लिए फिरते हो उस को 'अंजुम'
तुम ने इस शहर में क्या आग लगानी है कोई
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टैग : बारिश
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मैं चीख़ता रहा कुछ और भी है मेरा इलाज
मगर ये लोग तुम्हारा ही नाम लेते रहे
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सभी दरवाज़े खुले हैं मिरी तन्हाई के
सारी दुनिया को मयस्सर है रिफ़ाक़त मेरी
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एक ताबीर की सूरत नज़र आई है इधर
सो उठा लाया हूँ सब ख़्वाब पुराने वाले
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पत्थर में कौन जोंक लगाएगा मेरे दोस्त
दिल है तो मुब्तला भी कहीं होना चाहिए
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कर रहा हूँ तुझे ख़ुशी से बसर
ज़िंदगी तुझ से दाद चाहता हूँ
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