अनवर मिर्ज़ापुरी के शेर
मिरे अश्क भी हैं इस में ये शराब उबल न जाए
मिरा जाम छूने वाले तिरा हाथ जल न जाए
ऐ काश हमारी क़िस्मत में ऐसी भी कोई शाम आ जाए
इक चाँद फ़लक पर निकला हो इक चाँद सर-ए-बाम आ जाए
अभी रात कुछ है बाक़ी न उठा नक़ाब साक़ी
तिरा रिंद गिरते गिरते कहीं फिर सँभल न जाए
अकेला पा के मुझ को याद उन की आ तो जाती है
मगर फिर लौट कर जाती नहीं मैं कैसे सो जाऊँ
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मुझे फूँकने से पहले मिरा दिल निकाल लेना
ये किसी की है अमानत मिरे साथ जल न जाए
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मैं नज़र से पी रहा हूँ ये समाँ बदल न जाए
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए
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मैं ख़ुश हूँ अगर गुलशन के लिए कुछ मेरा लहू काम आ जाए
लेकिन मुझ को डर है इस का गुलचीं पे न इल्ज़ाम आ जाए
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डूब कर मैं ने तूफ़ाँ की दे दी ख़बर
नाख़ुदा बे-ख़बर हो तो मैं क्या करूँ
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