अरमान ख़ान अरमान के शेर
कुछ लुत्फ़ इस तरह है मुसलसल सफ़र के साथ
मंज़िल भी सामने हो तो रस्ता न पाए दिल
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नज़र तो फेर मिरे काग़ज़ी बदन की तरफ़
अभी ये ज़र्ब-ए-मुसलसल से तार-तार नहीं
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तल्ख़ियाँ ख़ून-ए-जिगर की शा'इरी में घोल कर
चंद मिसरे' लाएँ हैं हम भी सुनाने के लिए
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जंगल में उदासी के रहोगे भला कब तक
कुछ राह बना कर के निकल क्यों नहीं जाते
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सर क़लम कर दे सितमगर दस्त-ओ-बाज़ू काट दे
बे-तकल्लुफ़ हक़-ब-जानिब बात होनी चाहिए
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नए मिज़ाज के लोगों को किस लिए आख़िर
क़दीम तौर-तरीक़ों के बस में रहना पड़ा
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