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अरशद अब्दुल हमीद

प्रसिद्ध शायर और आलोचक

प्रसिद्ध शायर और आलोचक

अरशद अब्दुल हमीद के शेर

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ये इंतिज़ार नहीं शम्अ है रिफ़ाक़त की

इस इंतिज़ार से तन्हाई ख़ूब-सूरत है

कुछ सितारे मिरी पलकों पे चमकते हैं अभी

कुछ सितारे मिरे सीने में समाए हुए हैं

ज़मीं के पास किसी दर्द का इलाज नहीं

ज़मीन है कि मिरे अहद की सियासत है

दिल को मालूम है क्या बात बतानी है उसे

उस से क्या बात छुपानी है ज़बाँ जानती है

सर-बुलंदी मिरी तंहाई तक पहुँची है

मैं वहाँ हूँ कि जहाँ कोई नहीं मेरे सिवा

मिट्टी को चूम लेने की हसरत ही रह गई

टूटा जो शाख़ से तो हवा ले गई मुझे

सुख़न के चाक में पिन्हाँ तुम्हारी चाहत है

वगरना कूज़ा-गरी की किसे ज़रूरत है

ग़म-ए-जहान ग़म-ए-यार दो किनारे हैं

उधर जो डूबे वो अक्सर इधर निकल आए

ये किस को याद किया रूह की ज़रूरत ने

ये किस के नाम से मेरे लहू में फूल खिले

मिले जो उस से तो यादों के पर निकल आए

इस इक मक़ाम पे कितने सफ़र निकल आए

हवेली छोड़ने का वक़्त गया 'अरशद'

सुतूँ लरज़ते हैं और छत की मिट्टी गिरती है

हमें तो शम्अ के दोनों सिरे जलाने हैं

ग़ज़ल भी कहनी है शब को बसर भी करना है

मैं अपने आप को भी देखने से क़ासिर हूँ

ये शाम-ए-हिज्र मुझे क्या दिखाना चाहती है

उन्हें ये ज़ोम कि बे-सूद है सदा-ए-सुख़न

हमें ये ज़िद कि इसी हाव-हू में फूल खिले

ये दुनिया अकबर ज़ुल्मों की हम मजबूरी की अनारकली

हम दीवारों के बीच में हैं हम नरग़ा-ए-जब्र-ओ-जलाल में हैं

मुद्दतों घाव किए जिस के बदन पर हम ने

वक़्त आया तो उसी ख़्वाब को तलवार किया

इश्क़ मरहून-ए-हिकायात-ओ-गुमाँ भी होगा

वाक़िआ है तो किसी तौर बयाँ भी होगा

मिरा ही सीना कुशादा है चाहतों के तईं

तुफ़ंग-ए-दर्द मिरा ही निशाना चाहती है

हल्क़ा-ए-दिल से निकलो कि सर-ए-कूचा-ए-ख़ाक

ऐश जितने हैं इसी कुंज-ए-कम-आसार में हैं

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