अरशद जमाल सारिम के शेर
क्या कहूँ कितना फ़ुज़ूँ है तेरे दीवाने का दुख
इक तरफ़ जाने का ग़म है इक तरफ़ आने का दुख
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मुमकिन है यही दिल के मिलाने का सबब हो
ये रुत जो हमें हाथ मिलाने नहीं देती
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न जाने उस ने खुले आसमाँ में क्या देखा
परिंदा फिर से जहान-ए-क़फ़स में लौट आया
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बस इतना रब्त काफ़ी है मुझे ऐ भूलने वाले
तिरी सोई हुई आँखों में अक्सर जागता हूँ मैं
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ज़िंदगी तू भी हमें वैसे ही इक रोज़ गुज़ार
जिस तरह हम तुझे बरसों से गुज़ारे हुए हैं
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देख ऐ मेरी ज़बूँ-हाली पे हँसने वाले
वक़्त की धूप ने किस दर्जा निखारा मुझ को
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किस की तनवीर से जल उठ्ठे बसीरत के चराग़
किस की तस्वीर ये आँखों से लगाई गई है
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ख़त्म होता ही नहीं सिलसिला तन्हाई का
जाने किस दर्जा मसाफ़त में है ढाली गई शब
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जाने किस रुत में खिलेंगे यहाँ ताबीर के फूल
सोचता रहता हूँ अब ख़्वाब उगाता हुआ मैं
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ज़िंदगी हम से तिरी आँख-मिचोली कब तक
इक न इक रोज़ किसी मोड़ पे आ लेंगे तुझे
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वो इक लम्हा सज़ा काटी गई थी जिस की ख़ातिर
वो लम्हा तो अभी हम ने गुज़ारा ही नहीं था
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हर एक शाख़ पे वीरानियाँ मुसल्लत हैं
बदन-दरख़्त भी गोया है आशियाना-ए-शब
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इसी बाइस मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
मिरे अतराफ़ भी सूरज कोई गर्दिश में रहता है
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सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
अजब मिट्टी के घुलने का मज़ा बारिश में रहता है
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रक़म करूँ भी तो कैसे मैं दास्तान-ए-वफ़ा
हुरूफ़ फिरते हैं बेगाने मेरे काग़ज़ से
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ऐसी ही बे-चेहरगी छाई हुई है शहर में
आप-अपना अक्स हूँ मैं आप आईना हूँ मैं
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