अशअर नजमी के शेर
अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है
किसी दिन ख़ामुशी में ख़ुद को तन्हा छोड़ जाना है
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रफ़्ता रफ़्ता ख़त्म क़िस्सा हो गया होना ही था
वो भी आख़िर मेरे जैसा हो गया होना ही था
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सौंपोगे अपने बा'द विरासत में क्या मुझे
बच्चे का ये सवाल है गूँगे समाज से
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न जाने कब कोई आ कर मिरी तकमील कर जाए
इसी उम्मीद पे ख़ुद को अधूरा छोड़ जाना है
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ज़हर में डूबी हुई परछाइयों का रक़्स है
ख़ुद से वाबस्ता यहाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
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वो जिन की हिजरतों के आज भी कुछ दाग़ रौशन हैं
उन्ही बिछड़े परिंदों को शजर वापस बुलाता है
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शायद मिरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वर्ना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था
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बहुत मोहतात हो कर साँस लेना मो'तबर हो तुम
हमारा क्या है हम तो ख़ुद ही अपनी रद में रहते हैं
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रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ ए'तिराफ़ था
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कैनवस पर है ये किस का पैकर-ए-हर्फ़-ओ-सदा
इक नुमूद-ए-आरज़ू जो बे-निशाँ है और बस
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तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंज़ूम कब हुआ
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मैं ने भी परछाइयों के शहर की फिर राह ली
और वो भी अपने घर का हो गया होना ही था
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ना-तमामी के शरर में रोज़ ओ शब जलते रहे
सच तो ये है बे-ज़बाँ मैं भी नहीं तू भी नहीं
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सरों के बोझ को शानों पे रखना मोजज़ा भी है
हर इक पल वर्ना हम भी हल्क़ा-ए-सरमद में रहते हैं
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तुम भी थे सरशार मैं भी ग़र्क-ए-बहर-ए-रंग-ओ-बू
फिर भला दोनों में आख़िर ख़ुद-कशीदा कौन था
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