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आशिक़ अकबराबादी

1848 - 1918

आशिक़ अकबराबादी के शेर

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ज़िक्र करता है इस तरह मेरा

मुझ को गोया मिटाए जाता है

एक रुत्बा है तिरे दर पे गदा-ओ-शह का

आसमाँ कासे लिए फिरता है मेहर-ओ-मह का

अगर नज़ारा है मंज़ूर खस्ता-हालों का

तो आओ खोल दें जूड़ा तुम्हारे बालों का

मुझे तुम देख कर समझो कि चाहत ऐसी होती है

मोहब्बत वो बुरी शय है कि हालत ऐसी होती है

तिरे कूचे में कोई हूर जाती तो मैं कहता

कि वो जन्नत तो क्या जन्नत है जन्नत ऐसी होती है

साक़ी-ए-गुलफ़ाम ने रक्खी तो है भर कर शराब

डर है उड़ जाए शीशे से परी बन कर शराब

अपने मौक़े पे हर इक बात भली होती है

शब-ए-फ़ुर्क़त में ये सदमे भी मज़ा देते हैं

या इलाही इस दिल-ए-बेताब की ता'मीर में

किस ने पत्थर रख दिया था इश्क़ की बुनियाद का

वादा-ए-वस्ल गर किसी से नहीं

आप क्यूँ बे-क़रार फिरते हैं

अपना सानी वो आप ही निकले

आइना भी दिखा के देख लिया

जल्वा निगाह में है किसी बे-नियाज़ का

पुतली हमारी आँख की पुतला है नाज़ का

तू सर गूँध कि शागिर्द होने वाला है

मिरा नसीब तिरे लम्बे लम्बे बालों का

सो गए सुनते ही सुनते वो दिल-ए-ज़ार का हाल

जिस को हम समझे थे अफ़्सूँ वही अफ़्साना हुआ

आइने मैं दिखा के कहता हूँ

आप ही हैं कि दूसरा कहिए

चितवन आप की ठहरी दिल मिरा ठहरा

उसे सुकूँ हो तो इस को भी कुछ क़रार रहे

पहलू में अगर दिल है तो तू दिल में है मेरे

गो नंंग-ए-ख़लाएक़ हूँ मगर जान-ए-जहाँ हूँ

ख़ाक-ए-आशिक़ से जो उगता है मुग़ीलाँ का दरख़्त

उस की मिज़्गाँ का है मरक़द में भी खटका बाक़ी

आरज़ू इक बुत की ले कर जाते हैं का'बे को हम

तुर्फ़ा तोहफ़ा पास है अहल-ए-हरम के वास्ते

गदा-ए-कूचा-ए-जानाँ हूँ मर्तबा है बड़ा

कि मेरे नाम है जागीर बे-नवाई की

वो नैरंगियाँ उन के रोने में भी

कि हँसते रहे सब हसीं देर तक

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