आसिमा ताहिर के शेर
ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा
अपने जैसा हाल किया था
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मिरे वजूद के अंदर है इक क़दीम मकान
जहाँ से मैं ये उदासी उधार लेती हूँ
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ख़्वाब का इंतिज़ार ख़त्म हुआ
आँख को नींद से जगाते हैं
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हम ने जब हाल-ए-दिल उन से अपना कहा
वो भी क़िस्सा किसी का सुनाने लगे
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नहीं वो इतना भी पागल नहीं था
जो मर जाता मिरी वाबस्तगी में
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चुभ रही है अँधेरी रात मुझे
हर सितारा बुझाए बैठी हूँ
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आइने पर तो है भरोसा मुझे
उस से क्यूँ मुँह छुपाए बैठी हूँ
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शाम खुलती है तेरे आने से
लब पे तेरा सवाल रखती है
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डूबने की न तैरने की ख़बर
इश्क़-दरिया में बस उतर देखूँ
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मुझ को ख़्वाबों के बाग़ में ला कर
घने जंगल में खो रही है रात
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बाम-ओ-दर पर उतरने वाली धूप
सब्ज़ रंग-ए-मलाल रखती है
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शहज़ादी के कानों में जो बात कही थी इक तू ने
ब'अद तिरे वो बात तिरे ही अफ़्सानों में गूँजती है
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