असलम राशिद के शेर
'मीर' 'ग़ालिब' यहीं तो रहते थे
हम भी दिल्ली से दिल लगा लें क्या
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टैग : मीर तक़ी मीर
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सब को काँटों पे शक हुआ था मगर
ज़ख़्म के आस-पास फूल मिले
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इसी पानी में लाशें तैरती हैं
इसी पानी में पत्थर बैठते हैं
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एक पर्दा है सिर्फ़ साँसों का
साँस ठहरे तो काएनात खुले
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होता नहीं उदास किसी दुख से मैं कभी
इतने हसीन लोग मिरे आस-पास हैं
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हिज्र में जलते हुए उस को कहाँ देख सका
इतनी ताख़ीर हुई सिर्फ़ धुआँ देख सका
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आप का तो शौक़ है जलते घरों को देखना
आप आँखें नम करेंगे आप रहने दीजिए
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दिन दिन भर आईना देखा जाता है
तब जा कर दो चार इशारे बनते हैं
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अच्छा 'अमल समझ के जो दरिया में डाल दीं
दिल करता है वो नेकियाँ पानी से खींच लूँ
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बिछड़े थे जिस की वजह से सीता से राम जी
मैं उस हिरन को राम-कहानी से खींच लूँ
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रूठ जाएँगे मुझ से इक दिन सब
इस क़दर रूठता हूँ मैं सब से
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दर्द चेहरा पहन के आया था
तेरा चेहरा था सो क़ुबूल किया
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आँसू बता रहे हैं कि मुझ में है ज़िंदगी
या'नी मैं इंतिज़ार में पत्थर नहीं हुआ
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जवाब हँस के दिया उस ने और रोने लगा
सवाल पूछ के शर्मिंदगी बढ़ी मेरी
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मैं सुन रहा हूँ फ़ोन पे ख़ामोशियाँ तिरी
मैं जानता हूँ आज से क्या क्या तमाम है
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धूप में देख कर परिंदों को
उगने लगता है इक शजर मुझ में
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पहले उस की आँखें सोची जाती हैं
फिर आँखों में रात बिताई जाती है
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हँसी उन के लबों तक आ गई है
मुकम्मल हो गया रोना हमारा
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मुसलसल साथ सूरज के चली तो
किसी दिन डूब जाएगी नज़र भी
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कुछ सज़ा और बढ़ गई इस पर
ज़ख़्म खाए तो मुस्कुराए क्यों
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क़ब्र पर फूल रखने आया था
फिर यहीं घर बना लिया मैं ने
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