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असलम राशिद

1976 | गुना, भारत

असलम राशिद के शेर

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'मीर' 'ग़ालिब' यहीं तो रहते थे

हम भी दिल्ली से दिल लगा लें क्या

इसी पानी में लाशें तैरती हैं

इसी पानी में पत्थर बैठते हैं

पहले उस की आँखें सोची जाती हैं

फिर आँखों में रात बिताई जाती है

सब को काँटों पे शक हुआ था मगर

ज़ख़्म के आस-पास फूल मिले

ढूँढ़ रहा है दरिया किस को

रोज़ किनारे टूट रहे हैं

आप का तो शौक़ है जलते घरों को देखना

आप आँखें नम करेंगे आप रहने दीजिए

बिछड़े थे जिस की वजह से सीता से राम जी

मैं उस हिरन को राम-कहानी से खींच लूँ

दर्द चेहरा पहन के आया था

तेरा चेहरा था सो क़ुबूल किया

आँसू बता रहे हैं कि मुझ में है ज़िंदगी

या'नी मैं इंतिज़ार में पत्थर नहीं हुआ

जवाब हँस के दिया उस ने और रोने लगा

सवाल पूछ के शर्मिंदगी बढ़ी मेरी

मैं सुन रहा हूँ फ़ोन पे ख़ामोशियाँ तिरी

मैं जानता हूँ आज से क्या क्या तमाम है

धूप में देख कर परिंदों को

उगने लगता है इक शजर मुझ में

मुझ से बाहर निकल रहे थे सब

मैं भी हैरान सा निकल आया

रूठ जाएँगे मुझ से इक दिन सब

इस क़दर रूठता हूँ मैं सब से

आँखों से इक दरिया निकला

दरिया से कुछ लाशें निकलीं

दिन दिन भर आईना देखा जाता है

तब जा कर दो चार इशारे बनते हैं

अच्छा 'अमल समझ के जो दरिया में डाल दीं

दिल करता है वो नेकियाँ पानी से खींच लूँ

मैं ने आवाज़ बा'द में खोई

पहले मैं ने उसे पुकारा था

हिज्र में जलते हुए उस को कहाँ देख सका

इतनी ताख़ीर हुई सिर्फ़ धुआँ देख सका

आँखों से क्या रेत गिरेगी

दरिया तो अब सूख चुका है

होता नहीं उदास किसी दुख से मैं कभी

इतने हसीन लोग मिरे आस-पास हैं

एक पर्दा है सिर्फ़ साँसों का

साँस ठहरे तो काएनात खुले

हँसी उन के लबों तक गई है

मुकम्मल हो गया रोना हमारा

मुसलसल साथ सूरज के चली तो

किसी दिन डूब जाएगी नज़र भी

कुछ सज़ा और बढ़ गई इस पर

ज़ख़्म खाए तो मुस्कुराए क्यों

क़ब्र पर फूल रखने आया था

फिर यहीं घर बना लिया मैं ने

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