अतहर शाह ख़ान जैदी के शेर
बीवियाँ चार हैं और फिर भी हसीनों से शग़फ़
भाई तू बैठ के आराम से घर-बार चला
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कोई तो ढूँड के लाए कि मुन्तज़िम है कहाँ
लिफ़ाफ़ा गर नहीं देता न दे किराया तो दे
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खिड़कियों से नज़र उस की हटती नहीं
मेरा बेटा तो बालिग़-नज़र हो गया
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वो सादगी में उन को दो सामईन समझा
बस आठवीं ग़ज़ल पर मुनकिर-नकीर भागे
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हमारे डिप्टी-कमिश्नर ने चाँद देखा है
हमें ख़बर है कि वो ग़ैर-ज़िम्मे-दार नहीं
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लड़के की अमाँ ये बोलीं काम करे उस की जूती
दो भाई भत्ता लेते हैं अब्बा ख़ैर से डाकू हैं
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ये भी अच्छा है कि सहरा में बनाया है मकाँ
अब किराए पे यहाँ साया-ए-दीवार चला
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वो सास अब कितनी मर्तबा मर्तबान झाँके
बहू तो दो दिन में खा गई है अचार आधा
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मैं ने फूलों की आरज़ू की थी
आँख में मोतिया उतर आया!!
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ज़रूर मिट्टी का तेल साक़ी पिला गया है
जो पूरे साग़र से हो रहा है ख़ुमार आधा
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