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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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अतुल अजनबी के शेर

पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त

ख़ुद-ग़र्ज़ी ही कुछ ऐसी यहाँ हर शजर में है

अजब ख़ुलूस अजब सादगी से करता है

दरख़्त नेकी बड़ी ख़ामुशी से करता है

जब ग़ज़ल 'मीर' की पढ़ता है पड़ोसी मेरा

इक नमी सी मिरी दीवार में जाती है

सफ़र हो शाह का या क़ाफ़िला फ़क़ीरों का

शजर मिज़ाज समझते हैं राहगीरों का

किसी दरख़्त से सीखो सलीक़ा जीने का

जो धूप छाँव से रिश्ता बनाए रहता है

ये रहबर आज भी कितने पुराने लगते हैं

कि पेड़ दूर से रस्ता दिखाने लगते हैं

अजनबी तुम कभी पाओगे

मर्तबा जो ग़ज़ल में 'मीर' का है

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