अज़ीम मुर्तज़ा के शेर
जो हो सके तो चले आओ आज मेरी तरफ़
मिले भी देर हुई और जी उदास भी है
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दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद भी इक दौलत है
अहल-ए-ग़म भी तिरे शर्मिंदा-ए-एहसाँ निकले
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क्या क्या फ़राग़तें थीं मयस्सर हयात को
वो दिन भी थे कि तेरे सिवा कोई ग़म न था
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आज तक याद है वो शाम-ए-जुदाई का समाँ
तेरी आवाज़ की लर्ज़िश तिरे लहजे की थकन
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कुछ नक़्श तिरी याद के बाक़ी हैं अभी तक
दिल बे-सर-ओ-सामाँ सही वीराँ तो नहीं है
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ख़ुलूस-ए-नियत-ए-रहबर पे मुनहसिर है 'अज़ीम'
मक़ाम-ए-इश्क़ बहुत दूर भी है पास भी है
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कुछ आप का ग़म कुछ ग़म-ए-जाँ कुछ ग़म-ए-दुनिया
दामन में मिरे फूल भी हैं ख़ार भी ख़स भी
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बे-ख़ुदी में जिसे हम समझे हैं तेरा दामन
ऐन मुमकिन है कि अपना ही गरेबाँ निकले
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हम दर्द के मारे ही गिराँ-जाँ हैं वगर्ना
जीना तिरी फ़ुर्क़त में कुछ आसाँ तो नहीं है
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तुझ से मिल के भी तेरा इंतिज़ार रहता है
सुब्ह रू-ए-ख़ंदाँ से शाम ज़ुल्फ़-ए-बरहम तक
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तन्हाई का सन्नाटा और आती जाती रातें
तेरी याद न और कोई ग़म फिर भी नींद न आए
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एक दर्द-ए-हस्ती ने उम्र भर रिफ़ाक़त की
वर्ना साथ देता है कौन आख़िरी दम तक
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टूटा तो अज़ीज़ और हुआ अहल-ए-वफ़ा को
दिल भी कहीं उस शोख़ का पैमाँ तो नहीं है
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बेताबी-ए-हयात में आसूदगी भी थी
कुछ तेरा ग़म भी था ग़म-ए-दौराँ के साथ साथ
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वही यकसानियत-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो थी
ज़िंदगी दस्त-ब-दिल ख़ाक-बसर है कि जो थी
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अब इम्तियाज़-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन भी मिट गया
दिल चाक हो रहा है गरेबाँ के साथ साथ
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अब मेरे साथ उन की नज़र भी है बे-क़रार
नश्तर तड़प रहे हैं रग-ए-जाँ के साथ साथ
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