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शायर और लेखक

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अज़हर अदीब के शेर

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हम ने घर की सलामती के लिए

ख़ुद को घर से निकाल रक्खा है

तू अपनी मर्ज़ी के सभी किरदार आज़मा ले

मिरे बग़ैर अब तिरी कहानी नहीं चलेगी

निकल आया हूँ आगे उस जगह से

जहाँ से लौट जाना चाहिए था

हम उन की आस पे उम्रें गुज़ार देते हैं

वो मो'जिज़े जो कभी रूनुमा नहीं होते

लहजे और आवाज़ में रक्खा जाता है

अब तो ज़हर अल्फ़ाज़ में रक्खा जाता है

ज़रा सी देर तुझे आइना दिखाया है

ज़रा सी बात पर इतने ख़फ़ा नहीं होते

उसी ने सब से पहले हार मानी

वही सब से दिलावर लग रहा था

हमें रोको नहीं हम ने बहुत से काम करने हैं

किसी गुल में महकना है किसी बादल में रहना है

हमारे नाम की तख़्ती भी उन पे लग सकी

लहू में गूँध के मिट्टी जो घर बनाए गए

ये शख़्स जो तुझे आधा दिखाई देता है

इस आधे शख़्स को अपना बना के देख कभी

समझ में तो सकती है सबा की गुफ़्तुगू भी

मगर इस के लिए मा'सूम होना लाज़मी है

दश्त-ए-शब में पता ही नहीं चल सका

अपनी आँखें गईं या सितारे गए

इस लिए मैं ने मुहाफ़िज़ नहीं रक्खे अपने

मिरे दुश्मन मिरे इस जिस्म से बाहर कम हैं

हवा को ज़िद कि उड़ाएगी धूल हर सूरत

हमें ये धुन है कि आईना साफ़ करना है

मैं उस का नाम ले बैठा था इक दिन

ज़माने को बहाना चाहिए था

एक लम्हे को सही उस ने मुझे देखा तो है

आज का मौसम गुज़िश्ता रोज़ से अच्छा तो है

किसी की ज़ात में ज़म हो गया हूँ

मैं अपने आप में ग़म हो गया हूँ

जब भी चाहूँ तेरा चेहरा सोच सकूँ

बस इतनी सी बात मिरे इम्कान में रख

बे-ख़्वाबी कब छुप सकती है काजल से भी

जागने वाली आँख में लाली रह जाती है

देर लगती है बहुत लौट के आते आते

और वो इतने में हमें भूल चुका होता है

लोगो हम तो एक ही सूरत में हथियार उठाते हैं

जब दुश्मन हो अपने जैसा ख़ुद-सर भी और हम-सर भी

सारे मंज़र में समाया हुआ लगता है मुझे

कोई इस शहर में आया हुआ लगता है मुझे

शहर-ए-सितम छोड़ के जाते हुए लोगो

अब राह में कोई भी मदीना नहीं आता

सुब्ह कैसी है वहाँ शाम की रंगत क्या है

अब तिरे शहर में हालात की सूरत क्या है

मैं जिस लम्हे को ज़िंदा कर रहा हूँ मुद्दतों से

वही लम्हा मिरा इंकार करना चाहता है

दोनों हाथों से छुपा रक्खा है मुँह

आइने के वार से डरता हूँ मैं

जो ज़िंदगी की माँग सजाते रहे सदा

क़िस्तों में बाँट कर उन्हें जीना दिया गया

आज निकले याद की ज़म्बील से

मोर के टूटे हुए दो चार पर

इतना भी इंहिसार मिरे साए पर कर

क्या जाने कब ये मोम की दीवार गिर पड़े

कभी उस से दुआ की खेतियाँ सैराब करना

जो पानी आँख के अंदर कहीं ठहरा हुआ है

शब भर आँख में भीगा था

पूरे दिन में सूखा ख़्वाब

उसे बाम-ए-पज़ीराई पे कैसे छोड़ दूँ अब

यही तन्हाई तो मेरे लिए सीढ़ी बनी है

मेरे हरे वजूद से पहचान उस की थी

बे-चेहरा हो गया है वो जब से झड़ा हूँ मैं

ग़ज़ल उस के लिए कहते हैं लेकिन दर-हक़ीक़त हम

घने जंगल में किरनों के लिए रस्ता बनाते हैं

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