अज़हर नक़वी के शेर
शहर गुम-सुम रास्ते सुनसान घर ख़ामोश हैं
क्या बला उतरी है क्यूँ दीवार-ओ-दर ख़ामोश हैं
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रात भर चाँद से होती रहें तेरी बातें
रात खोले हैं सितारों ने तिरे राज़ बहुत
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अजब हैरत है अक्सर देखता है मेरे चेहरे को
ये किस ना-आश्ना का आइने में अक्स रहता है
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दिल कुछ देर मचलता है फिर यादों में यूँ खो जाता है
जैसे कोई ज़िद्दी बच्चा रोते रोते सो जाता है
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अजब नहीं कि बिछड़ने का फ़ैसला कर ले
अगर ये दिल है तो नादान हो भी सकता है
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फिर रेत के दरिया पे कोई प्यासा मुसाफ़िर
लिखता है वही एक कहानी कई दिन से
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कल शजर की गुफ़्तुगू सुनते थे और हैरत में थे
अब परिंदे बोलते हैं और शजर ख़ामोश हैं
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दुख सफ़र का है कि अपनों से बिछड़ जाने का ग़म
क्या सबब है वक़्त-ए-रुख़्सत हम-सफ़र ख़ामोश हैं
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जमी है गर्द आँखों में कई गुमनाम बरसों की
मिरे अंदर न जाने कौन बूढ़ा शख़्स रहता है
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इक मैं कि एक ग़म का तक़ाज़ा न कर सका
इक वो कि उस ने माँग लिए अपने ख़्वाब तक
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किनारों से जुदा होता नहीं तुग़्यानियों का दुख
नई मौजों में रहता है पुराने पानियों का दुख
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ख़्वाब मुट्ठी में लिए फिरते हैं सहरा सहरा
हम वही लोग हैं जो धूप के पर काटते हैं
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जिस रात खुला मुझ पे वो महताब की सूरत
वो रात सितारों की अमानत है सहर तक
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ख़ौफ़ ऐसा है कि हम बंद मकानों में भी
सोने वालों की हिफ़ाज़त के लिए जागते हैं
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एक हंगामा सा यादों का है दिल में 'अज़हर'
कितना आबाद हुआ शहर ये वीराँ हो कर
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अब तो मुझ को भी नहीं मिलती मिरी कोई ख़बर
कितना गुमनाम हुआ हूँ मैं नुमायाँ हो कर
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पत्थर जैसी आँखों में सूरज के ख़्वाब लगाते हैं
और फिर हम इस ख़्वाब के हर मंज़र से बाहर रहते हैं
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तेरा ही रक़्स सिलसिला-ए-अक्स-ए-ख़्वाब है
इस अश्क-ए-नीम-शब से शब-ए-माहताब तक
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एक इक साँस में सदियों का सफ़र काटते हैं
ख़ौफ़ के शहर में रहते हैं सो डर काटते हैं
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