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अज़ीज़ नबील

1976 | क़तर

क़तर में रहनेवाले प्रसिद्ध शायर

क़तर में रहनेवाले प्रसिद्ध शायर

अज़ीज़ नबील के शेर

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मुझ को अग़वा कर लिया है मेरे ख़्वाबों ने 'नबील'

और मिरी आँखें उन्हें मतलूब हैं तावान में

मेरी मिट्टी में मोहब्बत ही मोहब्बत है 'नबील'

छू के देखो तो सही हाथ लगाओ तो सही

'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा

ये ऐसी जीत है पहलू में जिस के हार चलती है

हर इक मंज़र भिगोना चाहती है

उदासी ख़ूब रोना चाहती है

'नबील' ऐसा करो तुम भी भूल जाओ उसे

वो शख़्स अपनी हर इक बात से मुकर चुका है

क़लम है हाथ में किरदार भी मिरे बस में

अगर मैं चाहूँ कहानी बदल भी सकता हूँ

भेद भरी आवाज़ों का इक शोर भरा है सीने में

खुल कर साँस नहीं लेने की शर्त है गोया जीने में

बिखर रही थी हवाओं में ए'तिबार की राख

और इंतिज़ार की मुट्ठी में ज़िंदगी कम थी

बहका तो बहुत बहका सँभला तो वली ठहरा

इस चाक-गरेबाँ का हर रंग निराला था

साँस लेता हुआ हर रंग नज़र आएगा

तुम किसी रोज़ मिरे रंग में आओ तो सही

ख़त्म होने को है हुकूमत-ए-शब

इक नई सुब्ह शम्अ-दान में है

ए'तिबार-ए-दोस्ती का रंग हूँ

बे-यक़ीनी में उतर जाऊँगा मैं

अजब रूठे हुए लोगों से अपनी आश्नाई है

मिलने का हमेशा इक बहाना साथ रखते हैं

मैं नींद क्या तिरे बाज़ार-ए-शब में ले आया

फिर इस के बाद तो ख़्वाबों का भाव और बढ़ा

जाने कितने सूरजों का फ़ैज़ हासिल है उसे

उस मुकम्मल रौशनी से जो मिला रौशन हुआ

वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं

उस एक राज़ से पर्दा उठा दिया गया है

ख़ामुशी टूटेगी आवाज़ का पत्थर भी तो हो

जिस क़दर शोर है अन्दर कभी बाहर भी तो हो

सैकड़ों रंगों की बारिश हो चुकेगी उस के बाद

इत्र में भीगी हुई शामों का मंज़र आएगा

एक जैसे रोज़-ओ-शब की धूल है आ'साब पर

कोई बे-तरतीब लम्हा मेरी यकसानी में रख

बहता हूँ मैं दरिया की रवानी से कहीं दूर

इक प्यास मुझे लाई थी पानी से कहीं दूर

शाम-ए-ग़म मैं ने जो पूछा मिरा ग़म-ख़्वार है कौन

इक ग़ज़ल 'मीर' के दीवान से बाहर आई

रूह के वीराँ तह-ख़ाने तक रोज़ कोई जाता है

तन्हाई के मौसम वाली ख़ाली राह-गुज़ारों से

हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'

इक रास्ता अलग से निकाले हुए तो हैं

आदतन मैं किसी एहसास के पीछे लपका

दफ़अ'तन एक ग़ज़ल दश्त-ए-सुख़न से निकली

आदतन सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात मैं

दिल परेशाँ था बहुत और मसअला कोई था

मैं दस्तरस से तुम्हारी निकल भी सकता हूँ

ये सोच लो कि मैं रस्ता बदल भी सकता हूँ

जब जाल मछेरे ने समेटा है अलस्सुब्ह

टूटा हुआ इक चाँद भी तालाब से निकला

मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें

सफ़र की रूह में सहरा कोई उतर चुका है

क़ैद कर के घर के अंदर अपनी तन्हाई को मैं

मुस्कुराता गुनगुनाता घर से बाहर गया

रोज़ दस्तक सी कोई देता है सीने में 'नबील'

रोज़ मुझ में किसी आवाज़ के पर खुलते हैं

मेरी आवारगी के क़दम चूम कर

रक़्स करती रही रहगुज़र देर तक

उस के ही हुस्न की तम्हीद हैं सारे मौसम

मैं उसे आज भी उतना ही हसीं जानता हूँ

लाए गए पहले तो सर-ए-दश्त-ए-इजाज़त

मारे गए फिर वादी-ए-इंकार में हम लोग

सवाल था कि जुस्तुजू 'अज़ीम है कि आरज़ू

सो यूँ हुआ कि 'उम्र-भर जवाब लिख रहे थे हम

कई आँखें मुझ में जाग उठीं कई मौसम मुझ में निकले

मिरे ख़्वाब नए करने के लिए मिरी वहशत कम करने के लिए

लहराया है पानी का धनक-रंग दुपट्टा

बरसात ने घनघोर घटाओं से निकल कर

हमें तो अपनी जुस्तुजू भी ख़ुद से दूर ले गई

तुम्हारी जुस्तुजू तो फिर तुम्हारी जुस्तुजू हुई

शायरी इश्क़ ग़म रिज़्क़ किताबें घर-बार

कितनी सम्तों में ब-यक-वक़्त गुज़र है मेरा

चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन

सुब्ह-दम बिखरे पड़े थे चार सू मेरी तरह

बुझी-बुझी सी ये बातें धुआँ-धुआँ लहजा

किसी 'अज़ाब में अंदर से जल रहे हो क्या

हाथ ख़ाली थे जब घर से रवाना हुआ मैं

सब ने झोली में मिरी अपनी ज़रूरत रख दी

यहीं कहीं तो चमकती थी इक तिलिस्मी झील

यहीं कहीं तो मैं डूबा था अपने ख़्वाब के साथ

चराग़ की थरथराती लौ में हर ओस क़तरे में हर किरन में

तुम्हारी आँखें कहाँ नहीं थीं तुम्हारा चेहरा कहाँ नहीं था

जान लेता हूँ हर इक चेहरे के पोशीदा नुक़ूश

तुम समझते हो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ

गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से

ज़मीं समेटे हुए आसमाँ उठाए हुए

उसी की चश्म-ए-कुशादा में रंग बनते हैं

उसी पे ख़त्म है क़ामत भी मह-जबीनी भी

एक तख़्ती अम्न के पैग़ाम की

टाँग दीजे ऊँचे मीनारों के बीच

धूप की टूटी हुई तख़्ती पे बारिश ने लिखा

घर के अंदर बैठ कर मौसम का अंदाज़ा कर

यूँही वो भी पूछता है तुम कैसे हो किस हाल में हो

यूँही मैं भी कह देता हूँ सब कुछ अच्छा चलता है

जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है

हमेशा मेरे आगे आगे इक दीवार चलती है

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