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अज़ीज़ नबील

1976 | क़तर

क़तर में रहनेवाले प्रसिद्ध शायर

क़तर में रहनेवाले प्रसिद्ध शायर

अज़ीज़ नबील के शेर

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हर इक मंज़र भिगोना चाहती है

उदासी ख़ूब रोना चाहती है

क्या ज़रूरी है कि हर बात तुम्हारी मानूँ

बात अपनी भी कई बार मानी मैं ने

मुस्तक़िल इक बे-यक़ीनी इक मुसलसल इंतिज़ार

फिर अचानक एक चेहरा जा-ब-जा रौशन हुआ

मैं अगर टूटा तो सारा शहर बिखरेगा 'नबील'

ऐसा पत्थर हूँ फ़सील-ए-शहर की बुनियाद का

यूँ लगता है सारी दुनिया बंद है मेरी मुट्ठी में

जिस दम मेरी उंगली पकड़े मेरा बेटा चलता है

जाने वाला साल तो फिर भी जैसे तैसे बीत गया

इस दुनिया को रखना मौला आने वाले साल में ख़ुश

इक तआ'रुफ़ तो ज़रूरी है सर-ए-राह-ए-जुनूँ

दश्त वाले नए बर्बाद को कब जानते हैं

तमाम शहर को तारीकियों से शिकवा है

मगर चराग़ की बैअत से ख़ौफ़ आता है

सरा-ए-इश्क़ में बैठे हुए हैं दिल वाले

और एक आख़िरी तोहमत के इंतिज़ार में हैं

मैं और कितने सितारों को डूबता देखूँ

स्याह रात की कश्ती से अब उतार मुझे

मुसलसल धुंद हल्की रौशनी भीगे हुए मंज़र

ये किन बरसी हुई आँखों की निगरानी में आए हैं

प्यास की सोंधी महक सहरा की वीरानी में रख

और सैराबी का दुख बहते हुए पानी में रख

'नबील' रेत में सिक्के तलाश करते हुए

मैं अपनी पूरी जवानी गँवाए बैठा हूँ

क्यों नहीं देखता है वो मुड़ कर

मर गईं राह में सदाएँ क्या

कल चाँद डगमगा के समुंदर में गिर गया

फैले हुए सितारों की बंदिश के बावजूद

मिरा तरीक़ा ज़रा मुख़्तलिफ़ है सूरज से

जहाँ पे डूबा वहीं से उभरने वाला हूँ

तुम्हारा साथ अगर हो तो जोड़ सकता हूँ

वो सिलसिला जो सर-ए-दास्तान टूट गया

वो कुछ पल जिन की ठंडी छाँव में तुम हो हमारे

वही कुछ पल तो जीवन-भर का हासिल हो गए हैं

आने वालों की मोहब्बत ही बहुत है मुझ को

जाने वालों से कहाँ कोई शिकायत है मुझे

ये बूँदें पहली बारिश की ये सोंधी ख़ुशबू माटी की

इक कोयल बाग़ में कूकी है आवाज़ यहाँ तक आई है

शेर का तीर किसी का हो अगर दिल को लगा

कहने वाले को बहुत दिल से दुआ दी हम ने

ये किस ज़मीं की कशिश खींचती है मेरे क़दम

ये कौन लोग बुलाते हैं मुझ को अपनी तरफ़

हमारा हिज्र क्या है रौशनी का एक वक़्फ़ा

इसी वक़्फ़े में है सिमटी हुई वुसअ'त हमारी

तुम ने आवाज़ को ज़ंजीर से कसना चाहा

देख लो हो गए अब हाथ तुम्हारे ज़ख़्मी

एक तख़्ती अम्न के पैग़ाम की

टाँग दीजे ऊँचे मीनारों के बीच

यूँही वो भी पूछता है तुम कैसे हो किस हाल में हो

यूँही मैं भी कह देता हूँ सब कुछ अच्छा चलता है

गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से

ज़मीं समेटे हुए आसमाँ उठाए हुए

उसी की चश्म-ए-कुशादा में रंग बनते हैं

उसी पे ख़त्म है क़ामत भी मह-जबीनी भी

चराग़ की थरथराती लौ में हर ओस क़तरे में हर किरन में

तुम्हारी आँखें कहाँ नहीं थीं तुम्हारा चेहरा कहाँ नहीं था

हाथ ख़ाली थे जब घर से रवाना हुआ मैं

सब ने झोली में मिरी अपनी ज़रूरत रख दी

बुझी-बुझी सी ये बातें धुआँ-धुआँ लहजा

किसी 'अज़ाब में अंदर से जल रहे हो क्या

सवाल था कि जुस्तुजू 'अज़ीम है कि आरज़ू

सो यूँ हुआ कि 'उम्र-भर जवाब लिख रहे थे हम

लहराया है पानी का धनक-रंग दुपट्टा

बरसात ने घनघोर घटाओं से निकल कर

शायरी इश्क़ ग़म रिज़्क़ किताबें घर-बार

कितनी सम्तों में ब-यक-वक़्त गुज़र है मेरा

रोज़ दस्तक सी कोई देता है सीने में 'नबील'

रोज़ मुझ में किसी आवाज़ के पर खुलते हैं

मेरी आवारगी के क़दम चूम कर

रक़्स करती रही रहगुज़र देर तक

सैकड़ों रंगों की बारिश हो चुकेगी उस के बाद

इत्र में भीगी हुई शामों का मंज़र आएगा

मैं नींद क्या तिरे बाज़ार-ए-शब में ले आया

फिर इस के बाद तो ख़्वाबों का भाव और बढ़ा

जाने कितने सूरजों का फ़ैज़ हासिल है उसे

उस मुकम्मल रौशनी से जो मिला रौशन हुआ

क़ैद कर के घर के अंदर अपनी तन्हाई को मैं

मुस्कुराता गुनगुनाता घर से बाहर गया

एक जैसे रोज़-ओ-शब की धूल है आ'साब पर

कोई बे-तरतीब लम्हा मेरी यकसानी में रख

बहता हूँ मैं दरिया की रवानी से कहीं दूर

इक प्यास मुझे लाई थी पानी से कहीं दूर

आदतन सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात मैं

दिल परेशाँ था बहुत और मसअला कोई था

ख़त्म होने को है हुकूमत-ए-शब

इक नई सुब्ह शम्अ-दान में है

ए'तिबार-ए-दोस्ती का रंग हूँ

बे-यक़ीनी में उतर जाऊँगा मैं

अजब रूठे हुए लोगों से अपनी आश्नाई है

मिलने का हमेशा इक बहाना साथ रखते हैं

भेद भरी आवाज़ों का इक शोर भरा है सीने में

खुल कर साँस नहीं लेने की शर्त है गोया जीने में

बिखर रही थी हवाओं में ए'तिबार की राख

और इंतिज़ार की मुट्ठी में ज़िंदगी कम थी

बहका तो बहुत बहका सँभला तो वली ठहरा

इस चाक-गरेबाँ का हर रंग निराला था

चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन

सुब्ह-दम बिखरे पड़े थे चार सू मेरी तरह

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