अज़ीज़ नबील के शेर
मुझ को अग़वा कर लिया है मेरे ख़्वाबों ने 'नबील'
और मिरी आँखें उन्हें मतलूब हैं तावान में
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मेरी मिट्टी में मोहब्बत ही मोहब्बत है 'नबील'
छू के देखो तो सही हाथ लगाओ तो सही
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'नबील' इस इश्क़ में तुम जीत भी जाओ तो क्या होगा
ये ऐसी जीत है पहलू में जिस के हार चलती है
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'नबील' ऐसा करो तुम भी भूल जाओ उसे
वो शख़्स अपनी हर इक बात से मुकर चुका है
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क़लम है हाथ में किरदार भी मिरे बस में
अगर मैं चाहूँ कहानी बदल भी सकता हूँ
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भेद भरी आवाज़ों का इक शोर भरा है सीने में
खुल कर साँस नहीं लेने की शर्त है गोया जीने में
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बिखर रही थी हवाओं में ए'तिबार की राख
और इंतिज़ार की मुट्ठी में ज़िंदगी कम थी
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बहका तो बहुत बहका सँभला तो वली ठहरा
इस चाक-गरेबाँ का हर रंग निराला था
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साँस लेता हुआ हर रंग नज़र आएगा
तुम किसी रोज़ मिरे रंग में आओ तो सही
ख़त्म होने को है हुकूमत-ए-शब
इक नई सुब्ह शम्अ-दान में है
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ए'तिबार-ए-दोस्ती का रंग हूँ
बे-यक़ीनी में उतर जाऊँगा मैं
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अजब रूठे हुए लोगों से अपनी आश्नाई है
न मिलने का हमेशा इक बहाना साथ रखते हैं
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मैं नींद क्या तिरे बाज़ार-ए-शब में ले आया
फिर इस के बाद तो ख़्वाबों का भाव और बढ़ा
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जाने कितने सूरजों का फ़ैज़ हासिल है उसे
उस मुकम्मल रौशनी से जो मिला रौशन हुआ
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वो एक राज़! जो मुद्दत से राज़ था ही नहीं
उस एक राज़ से पर्दा उठा दिया गया है
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ख़ामुशी टूटेगी आवाज़ का पत्थर भी तो हो
जिस क़दर शोर है अन्दर कभी बाहर भी तो हो
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सैकड़ों रंगों की बारिश हो चुकेगी उस के बाद
इत्र में भीगी हुई शामों का मंज़र आएगा
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एक जैसे रोज़-ओ-शब की धूल है आ'साब पर
कोई बे-तरतीब लम्हा मेरी यकसानी में रख
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बहता हूँ मैं दरिया की रवानी से कहीं दूर
इक प्यास मुझे लाई थी पानी से कहीं दूर
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शाम-ए-ग़म मैं ने जो पूछा मिरा ग़म-ख़्वार है कौन
इक ग़ज़ल 'मीर' के दीवान से बाहर आई
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रूह के वीराँ तह-ख़ाने तक रोज़ कोई आ जाता है
तन्हाई के मौसम वाली ख़ाली राह-गुज़ारों से
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हम क़ाफ़िले से बिछड़े हुए हैं मगर 'नबील'
इक रास्ता अलग से निकाले हुए तो हैं
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आदतन मैं किसी एहसास के पीछे लपका
दफ़अ'तन एक ग़ज़ल दश्त-ए-सुख़न से निकली
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आदतन सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात मैं
दिल परेशाँ था बहुत और मसअला कोई न था
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मैं दस्तरस से तुम्हारी निकल भी सकता हूँ
ये सोच लो कि मैं रस्ता बदल भी सकता हूँ
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जब जाल मछेरे ने समेटा है अलस्सुब्ह
टूटा हुआ इक चाँद भी तालाब से निकला
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मुसाफ़िरों से कहो अपनी प्यास बाँध रखें
सफ़र की रूह में सहरा कोई उतर चुका है
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क़ैद कर के घर के अंदर अपनी तन्हाई को मैं
मुस्कुराता गुनगुनाता घर से बाहर आ गया
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रोज़ दस्तक सी कोई देता है सीने में 'नबील'
रोज़ मुझ में किसी आवाज़ के पर खुलते हैं
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मेरी आवारगी के क़दम चूम कर
रक़्स करती रही रहगुज़र देर तक
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उस के ही हुस्न की तम्हीद हैं सारे मौसम
मैं उसे आज भी उतना ही हसीं जानता हूँ
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लाए गए पहले तो सर-ए-दश्त-ए-इजाज़त
मारे गए फिर वादी-ए-इंकार में हम लोग
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सवाल था कि जुस्तुजू 'अज़ीम है कि आरज़ू
सो यूँ हुआ कि 'उम्र-भर जवाब लिख रहे थे हम
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कई आँखें मुझ में जाग उठीं कई मौसम मुझ में आ निकले
मिरे ख़्वाब नए करने के लिए मिरी वहशत कम करने के लिए
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लहराया है पानी का धनक-रंग दुपट्टा
बरसात ने घनघोर घटाओं से निकल कर
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हमें तो अपनी जुस्तुजू भी ख़ुद से दूर ले गई
तुम्हारी जुस्तुजू तो फिर तुम्हारी जुस्तुजू हुई
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शायरी इश्क़ ग़म रिज़्क़ किताबें घर-बार
कितनी सम्तों में ब-यक-वक़्त गुज़र है मेरा
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चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन
सुब्ह-दम बिखरे पड़े थे चार सू मेरी तरह
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बुझी-बुझी सी ये बातें धुआँ-धुआँ लहजा
किसी 'अज़ाब में अंदर से जल रहे हो क्या
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हाथ ख़ाली न थे जब घर से रवाना हुआ मैं
सब ने झोली में मिरी अपनी ज़रूरत रख दी
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यहीं कहीं तो चमकती थी इक तिलिस्मी झील
यहीं कहीं तो मैं डूबा था अपने ख़्वाब के साथ
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चराग़ की थरथराती लौ में हर ओस क़तरे में हर किरन में
तुम्हारी आँखें कहाँ नहीं थीं तुम्हारा चेहरा कहाँ नहीं था
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जान लेता हूँ हर इक चेहरे के पोशीदा नुक़ूश
तुम समझते हो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ
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गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से
ज़मीं समेटे हुए आसमाँ उठाए हुए
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उसी की चश्म-ए-कुशादा में रंग बनते हैं
उसी पे ख़त्म है क़ामत भी मह-जबीनी भी
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एक तख़्ती अम्न के पैग़ाम की
टाँग दीजे ऊँचे मीनारों के बीच
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टैग : अम्न
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धूप की टूटी हुई तख़्ती पे बारिश ने लिखा
घर के अंदर बैठ कर मौसम का अंदाज़ा न कर
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यूँही वो भी पूछता है तुम कैसे हो किस हाल में हो
यूँही मैं भी कह देता हूँ सब कुछ अच्छा चलता है
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न जाने कैसी महरूमी पस-ए-रफ़्तार चलती है
हमेशा मेरे आगे आगे इक दीवार चलती है
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