अज़ीज़ नबील के शेर
क्या ज़रूरी है कि हर बात तुम्हारी मानूँ
बात अपनी भी कई बार न मानी मैं ने
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मुस्तक़िल इक बे-यक़ीनी इक मुसलसल इंतिज़ार
फिर अचानक एक चेहरा जा-ब-जा रौशन हुआ
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मैं अगर टूटा तो सारा शहर बिखरेगा 'नबील'
ऐसा पत्थर हूँ फ़सील-ए-शहर की बुनियाद का
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यूँ लगता है सारी दुनिया बंद है मेरी मुट्ठी में
जिस दम मेरी उंगली पकड़े मेरा बेटा चलता है
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जाने वाला साल तो फिर भी जैसे तैसे बीत गया
इस दुनिया को रखना मौला आने वाले साल में ख़ुश
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इक तआ'रुफ़ तो ज़रूरी है सर-ए-राह-ए-जुनूँ
दश्त वाले नए बर्बाद को कब जानते हैं
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तमाम शहर को तारीकियों से शिकवा है
मगर चराग़ की बैअत से ख़ौफ़ आता है
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सरा-ए-इश्क़ में बैठे हुए हैं दिल वाले
और एक आख़िरी तोहमत के इंतिज़ार में हैं
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मैं और कितने सितारों को डूबता देखूँ
स्याह रात की कश्ती से अब उतार मुझे
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मुसलसल धुंद हल्की रौशनी भीगे हुए मंज़र
ये किन बरसी हुई आँखों की निगरानी में आए हैं
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प्यास की सोंधी महक सहरा की वीरानी में रख
और सैराबी का दुख बहते हुए पानी में रख
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'नबील' रेत में सिक्के तलाश करते हुए
मैं अपनी पूरी जवानी गँवाए बैठा हूँ
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क्यों नहीं देखता है वो मुड़ कर
मर गईं राह में सदाएँ क्या
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कल चाँद डगमगा के समुंदर में गिर गया
फैले हुए सितारों की बंदिश के बावजूद
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मिरा तरीक़ा ज़रा मुख़्तलिफ़ है सूरज से
जहाँ पे डूबा वहीं से उभरने वाला हूँ
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तुम्हारा साथ अगर हो तो जोड़ सकता हूँ
वो सिलसिला जो सर-ए-दास्तान टूट गया
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वो कुछ पल जिन की ठंडी छाँव में तुम हो हमारे
वही कुछ पल तो जीवन-भर का हासिल हो गए हैं
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आने वालों की मोहब्बत ही बहुत है मुझ को
जाने वालों से कहाँ कोई शिकायत है मुझे
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ये बूँदें पहली बारिश की ये सोंधी ख़ुशबू माटी की
इक कोयल बाग़ में कूकी है आवाज़ यहाँ तक आई है
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शेर का तीर किसी का हो अगर दिल को लगा
कहने वाले को बहुत दिल से दुआ दी हम ने
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ये किस ज़मीं की कशिश खींचती है मेरे क़दम
ये कौन लोग बुलाते हैं मुझ को अपनी तरफ़
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हमारा हिज्र क्या है रौशनी का एक वक़्फ़ा
इसी वक़्फ़े में है सिमटी हुई वुसअ'त हमारी
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तुम ने आवाज़ को ज़ंजीर से कसना चाहा
देख लो हो गए अब हाथ तुम्हारे ज़ख़्मी
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एक तख़्ती अम्न के पैग़ाम की
टाँग दीजे ऊँचे मीनारों के बीच
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टैग : अम्न
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यूँही वो भी पूछता है तुम कैसे हो किस हाल में हो
यूँही मैं भी कह देता हूँ सब कुछ अच्छा चलता है
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गुज़र रहा हूँ किसी ख़्वाब के इलाक़े से
ज़मीं समेटे हुए आसमाँ उठाए हुए
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उसी की चश्म-ए-कुशादा में रंग बनते हैं
उसी पे ख़त्म है क़ामत भी मह-जबीनी भी
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चराग़ की थरथराती लौ में हर ओस क़तरे में हर किरन में
तुम्हारी आँखें कहाँ नहीं थीं तुम्हारा चेहरा कहाँ नहीं था
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हाथ ख़ाली न थे जब घर से रवाना हुआ मैं
सब ने झोली में मिरी अपनी ज़रूरत रख दी
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बुझी-बुझी सी ये बातें धुआँ-धुआँ लहजा
किसी 'अज़ाब में अंदर से जल रहे हो क्या
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सवाल था कि जुस्तुजू 'अज़ीम है कि आरज़ू
सो यूँ हुआ कि 'उम्र-भर जवाब लिख रहे थे हम
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लहराया है पानी का धनक-रंग दुपट्टा
बरसात ने घनघोर घटाओं से निकल कर
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शायरी इश्क़ ग़म रिज़्क़ किताबें घर-बार
कितनी सम्तों में ब-यक-वक़्त गुज़र है मेरा
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रोज़ दस्तक सी कोई देता है सीने में 'नबील'
रोज़ मुझ में किसी आवाज़ के पर खुलते हैं
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मेरी आवारगी के क़दम चूम कर
रक़्स करती रही रहगुज़र देर तक
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सैकड़ों रंगों की बारिश हो चुकेगी उस के बाद
इत्र में भीगी हुई शामों का मंज़र आएगा
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मैं नींद क्या तिरे बाज़ार-ए-शब में ले आया
फिर इस के बाद तो ख़्वाबों का भाव और बढ़ा
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जाने कितने सूरजों का फ़ैज़ हासिल है उसे
उस मुकम्मल रौशनी से जो मिला रौशन हुआ
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क़ैद कर के घर के अंदर अपनी तन्हाई को मैं
मुस्कुराता गुनगुनाता घर से बाहर आ गया
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एक जैसे रोज़-ओ-शब की धूल है आ'साब पर
कोई बे-तरतीब लम्हा मेरी यकसानी में रख
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बहता हूँ मैं दरिया की रवानी से कहीं दूर
इक प्यास मुझे लाई थी पानी से कहीं दूर
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आदतन सुलझा रहा था गुत्थियाँ कल रात मैं
दिल परेशाँ था बहुत और मसअला कोई न था
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ख़त्म होने को है हुकूमत-ए-शब
इक नई सुब्ह शम्अ-दान में है
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ए'तिबार-ए-दोस्ती का रंग हूँ
बे-यक़ीनी में उतर जाऊँगा मैं
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अजब रूठे हुए लोगों से अपनी आश्नाई है
न मिलने का हमेशा इक बहाना साथ रखते हैं
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भेद भरी आवाज़ों का इक शोर भरा है सीने में
खुल कर साँस नहीं लेने की शर्त है गोया जीने में
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बिखर रही थी हवाओं में ए'तिबार की राख
और इंतिज़ार की मुट्ठी में ज़िंदगी कम थी
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बहका तो बहुत बहका सँभला तो वली ठहरा
इस चाक-गरेबाँ का हर रंग निराला था
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चाँद तारे इक दिया और रात का कोमल बदन
सुब्ह-दम बिखरे पड़े थे चार सू मेरी तरह
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