अज़ीज़ वारसी के शेर
दिल में अब कुछ भी नहीं उन की मोहब्बत के सिवा
सब फ़साने हैं हक़ीक़त में हक़ीक़त के सिवा
तुम्हारी ज़ात से मंसूब है दीवानगी मेरी
तुम्हीं से अब मिरी दीवानगी देखी नहीं जाती
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कैसे मुमकिन है कि हम दोनों बिछड़ जाएँगे
इतनी गहराई से हर बात को सोचा न करो
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ग़म-ए-उक़्बा ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-हस्ती की क़सम
और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
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मुझ से ये पूछ रहे हैं मिरे अहबाब 'अज़ीज़'
क्या मिला शहर-ए-सुख़न में तुम्हें शोहरत के सिवा
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तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई
रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा न करो
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इक वक़्त था कि दिल को सुकूँ की तलाश थी
और अब ये आरज़ू है कि दर्द-ए-निहाँ रहे
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मोहब्बत लफ़्ज़ तो सादा सा है लेकिन 'अज़ीज़' इस को
मता-ए-दिल समझते थे मता-ए-दिल समझते हैं
जहाँ में हम जिसे भी प्यार के क़ाबिल समझते हैं
हक़ीक़त में उसी को ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
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तिरी महफ़िल में फ़र्क़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कौन देखेगा
फ़साना ही नहीं कोई तो उनवाँ कौन देखेगा
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ख़ुशी महसूस करता हूँ न ग़म महसूस करता हूँ
बहर-आलम तुम्हारा ही करम महसूस करता हूँ
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मोहतसिब आओ चलें आज तो मय-ख़ाने में
एक जन्नत है वहाँ आप की जन्नत के सिवा
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मिरी तक़दीर से पहले सँवरना जिन का मुश्किल है
तिरी ज़ुल्फ़ों में कुछ ऐसे भी ख़म महसूस करता हूँ
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