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बद्र मुनीर के शेर

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कचरे से उठाई जो किसी तिफ़्ल ने रोटी

फिर हल्क़ से मेरे कोई लुक़्मा नहीं उतरा

जब वस्ल का आएगा तिरे साथ सनम दिन

उस दिन को हक़ीक़त में कहूँगा मैं जनम-दिन

इस से बढ़ कर और क्या हम पर सितम होगा 'मुनीर'

मशवरा माँगा है इस ने फ़ैसला करने के बा'द

कुंज-ए-हैरत से चले दश्त-ए-ज़ियाँ तक लाए

कौन ला सकता है हम दिल को जहाँ तक लाए

कोई भी सुर में नहीं है 'मुनीर' क्या कीजे

ये ज़िंदगी का तराना रियाज़ माँगता है

पड़ जाते हैं कितने छाले हाथों में

आते हैं फिर चंद निवाले हाथों में

बूढ़े कमज़ोर वालदैन के साथ

जी रहा हूँ मैं कितने चैन के साथ

चराग़ अंदर की साज़िशों से बुझे हुए हैं

और इस का इल्ज़ाम भी हवा पर चला गया है

क्या ख़बर कौन सा रस्ता तिरी जानिब निकले

बे-इरादा भी कई बार सफ़र करते हैं

मैं आज तुझ से मुलाक़ात करने आया हूँ

नई ग़ज़ल की शुरू'आत करने आया हूँ

सिपह-सालार के जब हाथ काँपें तो सिपाही भी

ज़ियादा देर फिर मैदान में ठहरा नहीं करते

मुस्कुरा कर अगर वो देखे तो

आइने पर निशान पड़ जाए

ज़मीं पे सिर्फ़ उतारा नहीं 'मुनीर' उस ने

फिर उस के बा'द हमारा ख़याल भी रक्खा

एक उम्मीद के सहारे पर

कितनी ताख़ीर देख लेते हैं

तय हो चुकी है उस से जुदाई मगर 'मुनीर'

तू उस के साथ लम्हा-ए-इंकार तक तो चल

जीवन है सड़क और किनारे पे खड़े हैं

लगता है कि मुद्दत से इशारे पे खड़े हैं

करनी पड़ जाए वज़ाहत पे वज़ाहत लेकिन

हम तिरी बात की तरदीद नहीं कर सकते

गो हर्फ़-ओ-अश्क दोनों थे सामान-ए-गुफ़्तुगू

फिर भी हमारी बात में इबहाम रह गया

समझ में आता नहीं ये कैसी नुमू है मुझ में

वो मेरी मिट्टी में कुछ मिला कर चला गया है

बे-चेहरा इंसानों की इस बस्ती में

अच्छा है आईने तोड़ दिए जाएँ

जिस मंज़र का हिस्सा तेरी ज़ात नहीं

मेरी नज़र में उस की कोई औक़ात नहीं

लड़ रहा हूँ मैं अकेला कार-ज़ार-ए-हस्त में

कर फ़राहम तू भी ज़ालिम अपने होने का जवाज़

कहाँ से हम अपनी गर्दिशों का जवाज़ ढूँडें

हमारा महवर ज़मीं के महवर से मुख़्तलिफ़ है

कब से पहुँच गया हूँ मैं उस शख़्स के क़रीब

कहती है फिर भी उस की नज़र रास्ते में हूँ

और क्या मफ़्हूम होगा ख़ुद-फ़रेबी के सिवा

तिश्नगी जलते हुए सूरज पे गर ज़ाहिर करें

बन गए इंसान अपनी ज़ात में जंगल 'मुनीर'

बस्तियों से उड़ गई है बू-ए-आदम-ज़ाद तक

तुझ को ख़ुद से मिन्हा करते

ना-मुम्किन था ऐसा करते

तिरी सूरत में रिहाई मिल गई

आँख कितने मंज़रों में क़ैद थी

ये आईनों के हैं या नक़्स मेरे

बिगड़ते जा रहे हैं 'अक्स मेरे

उस वक़्त से बचा मुझे रब्ब-ए-काएनात

हुब्ब-ए-वतन हो दिल में वतन काटने लगे

तेरी सूरत में रिहाई मिल गई

आँख कितने मंज़रों में क़ैद थी

ये तो अहल-ए-जुनूँ का मस्कन है

आप कैसे जनाब सहरा में

ये किस तरह की ज़मीं पे हम ने बिना-ए-शहर-ए-मुराद रक्खी

यहाँ पे कोई गुलाब-मौसम उतर भी सकता है और नहीं भी

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