बकुल देव के शेर
हवस शामिल है थोड़ी सी दुआ में
अभी इस लौ में हल्का सा धुआँ है
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शाम उतरी है फिर अहाते में
जिस्म पर रौशनी के घाव लिए
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वही आँसू वही माज़ी के क़िस्से
जिसे देखो कटे को काटता है
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मुस्कुराने का फ़न तो बअ'द का है
पहले साअ'त का इंतिख़ाब करो
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तअ'ल्लुक़ तर्क तो कर लें सभी से
भले लगते हैं कुछ नुक़सान लेकिन
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समुंदर है कोई आँखों में शायद
किनारों पर चमकते हैं गुहर से
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सम्त दुनिया के हम गए ही नहीं
उस इलाक़े से दुश्मनी सी रही
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मैं सारे फ़ासले तय कर चुका हूँ
ख़ुदी जो दरमियाँ थी दरमियाँ है
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मिले अब के तो रोए टूट कर हम
गुनाह अपनी सज़ा के रू-ब-रू था
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उतर जाता तो रुस्वाई बहुत होती
कि सर का बोझ भी दस्तार जैसा था
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ख़्वाब नद्दी सा गुज़र जाएगा
दश्त आँखों में ठहर जाना है
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एक नश्शा है ख़ुद-नुमाई भी
जो ये उतरे तो फिर तुझे देखूँ
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कशिश तुझ सी न थी तेरे ग़मों में
लब-ओ-लहजा मगर हाँ हू-ब-हू था
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हम जो टूटे हैं बता हार भला किस की हुई
ज़िंदगी तेरी उठाई हुई सौगंद थे हम
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अब के ताबीर मसअला न रहे
ये जो दुनिया है इस को ख़्वाब करो
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हमें इस तरह ही होना था आबाद
हमारे साथ वीराने लगे हैं
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ज़ेर-ए-लब रख छुपा के नाम उस का
लफ़्ज़ होते हैं कुछ बयाँ से ख़राब
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आइने में है फिर वही सूरत
यूँ ही होती है तर्जुमानी क्या
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और कुछ देर ग़म नज़र में रख
क्या ख़बर मिल ही जाए थाह कहीं
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बअ'द मुद्दत ये जिला किस के हुनर ने बख़्शी
बअ'द मुद्दत मिरे आईने में चेहरे आए
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