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बाक़र मेहदी के शेर
सैलाब-ए-ज़िंदगी के सहारे बढ़े चलो
साहिल पे रहने वालों का नाम-ओ-निशाँ नहीं
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टैग : प्रेरणादायक
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मुझे दुश्मन से अपने इश्क़ सा है
मैं तन्हा आदमी की दोस्ती हूँ
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फ़ासले ऐसे कि इक उम्र में तय हो न सकें
क़ुर्बतें ऐसी कि ख़ुद मुझ में जनम है उस का
जाने क्यूँ उन से मिलते रहते हैं
ख़ुश वो क्या होंगे जब ख़फ़ा ही नहीं
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टैग : ख़फ़ा
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आज़मा लो कि दिल को चैन आए
ये न कहना कहीं वफ़ा ही नहीं
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टैग : वफ़ा
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हम मिलें या न मिलें फिर भी कभी ख़्वाबों में
मुस्कुराती हुई आएँगी हमारी बातें
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कभी तो भूल गए पी के नाम तक उन का
कभी वो याद जो आए तो फिर पिया न गया
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इस तरह कुछ बदल गई है ज़मीं
हम को अब ख़ौफ़-ए-आसमाँ न रहा
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ये सोच कर तिरी महफ़िल से हम चले आए
कि एक बार तो बढ़ जाए हौसला दिल का
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चले तो जाते हो रूठे हुए मगर सुन लो
हर एक मोड़ पे कोई तुम्हें सदा देगा
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क़ाफ़िले ख़ुद सँभल सँभल के बढ़े
जब कोई मीर-ए-कारवाँ न रहा
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मेरे सनम-कदे में कई और बुत भी हैं
इक मेरी ज़िंदगी के तुम्हीं राज़-दाँ नहीं
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ये किस जगह पे क़दम रुक गए हैं क्या कहिए
कि मंज़िलों के निशाँ तक मिटा के बैठे हैं
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काफ़िरी इश्क़ का शेवा है मगर तेरे लिए
इस नए दौर में हम फिर से मुसलमाँ होंगे
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ऐसी बेगानगी नहीं देखी
अब किसी का कोई यहाँ न रहा
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जाने किन मुश्किलों से जीते हैं
क्या करें कोई मेहरबाँ न रहा
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इस शहर में है कौन हमारा तिरे सिवा
ये क्या कि तू भी अपना कभी हम-नवा न हो
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आईना क्या किस को दिखाता गली गली हैरत बिकती थी
नक़्क़ारों का शोर था हर सू सच्चे सब और झूटा मैं
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दामन-ए-सब्र के हर तार से उठता है धुआँ
और हर ज़ख़्म पे हंगामा उठा आज भी है
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एक तूफ़ाँ की तरह कब से किनारा-कश है
फिर भी 'बाक़र' मिरी नज़रों में भरम है उस का
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