बशीरुद्दीन अहमद देहलवी के शेर
चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया
बंधन सा इक बँधा था रग-ओ-पय से जिस्म में
मरने के ब'अद हाथ से मोती बिखर गए
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कभी दर पर कभी है रस्ते में
नहीं थकती है इंतिज़ार से आँख
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टैग : इंतिज़ार
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ज़ोर से साँस जो लेता हूँ तो अक्सर शब-ए-ग़म
दिल की आवाज़ अजब दर्द भरी आती है
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ये उन का खेल तो देखो कि एक काग़ज़ पर
लिखा भी नाम मिरा और फिर मिटा भी दिया
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अहद के साथ ये भी हो इरशाद
किस तरह और कब मिलेंगे आप
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वो अपने मतलब की कह रहे हैं ज़बान पर गो है बात मेरी
है चित भी उन की है पट भी उन की है जीत उन की है मात मेरी
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कहते हैं अर्ज़-ए-वस्ल पर वो कहो
दूसरी बात दूसरा मतलब
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रिहाई जीते जी मुमकिन नहीं है
क़फ़स है आहनी दर-बंद पर बंद
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ये छेड़ क्या है ये क्या मुझ से दिल-लगी है कोई
जगाया नींद से जागा तो फिर सुला भी दिया
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शाम भी है सुब्ह भी है और दिन भी रात भी
माह-ए-ताबाँ अब भी है महर-ए-दरख़्शाँ अब भी है
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मिरा दिल भी तिलिस्मी है ख़ज़ाना
कि इस में ख़ैर भी है और शर बंद
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