बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन के शेर
अनहोनी कुछ ज़रूर हुई दिल के साथ आज
नादान था मगर ये दिवाना कभी न था
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ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
हम तो शो'लों से न गुज़़रेंगे न सीता समझें
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हर-दिल-अज़ीज़ वो भी है हम भी हैं ख़ुश-मिज़ाज
अब क्या बताएँ कैसे हमारी नहीं बनी
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अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी
कुछ हम न कह सके तो कुछ उस ने नहीं सुनी
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दर बदर की ख़ाक थी तक़दीर में
हम लिए काँधों पे घर चलते रहे
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जिन में खो कर हम ख़ुद को भी भूल गए हैं
क्या हम को भी उन आँखों ने ढूँडा होगा
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जाने क्या कुछ है आज होने को
जी मिरा चाहता है रोने को
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उठ कर चले गए तो कभी फिर न आएँगे
फिर लाख तुम बुलाओ सदाएँ दिया करो
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है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सिरिश्त हम भी हैं
सितम भी उस ने ज़रूरत से कुछ ज़ियादा किया
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मेरी तरह टूटे आईने में उस ने भी
टुकड़े टुकड़े अपने आप को पाया होगा
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कितने सादा हैं हम कि बैठे हैं
दाग़-ए-दिल आँसुओं से धोने को
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ख़ुद अपनी फ़िक्र उगाती है वहम के काँटे
उलझ उलझ के मिरा हर सवाल ठहरा है
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हम तो बेगाने से ख़ुद को भी मिले हैं 'बिल्क़ीस'
किस तवक़्क़ो पे किसी शख़्स को अपना समझें
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तेरी तो 'बिल्क़ीस' निराली ही बातें हैं
इस दुनिया में कैसे तिरा गुज़ारा होगा
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बस एक जान बची थी छिड़क दी राहों पर
दिल-ए-ग़रीब ने इक एहतिमाम सादा किया
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दहशत-ज़दा ज़मीं पर वहशत भरे मकाँ ये
इस शहर-ए-बे-अमाँ का आख़िर कोई ख़ुदा है
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किस ने कहा किसी का कहा तुम किया करो
लेकिन कहे कोई तो कभी सुन लिया करो
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ज़रा सी देर भी रुकता तो कुछ पता चलता
वो रंग था कि थी ख़ुशबू सहाब सा क्या था
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यूँ चुप रहा करे से तो हो जाए है जुनूँ
ज़ख़्म-ए-निहाँ कुरेद के कुछ रो लिया करो
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नहीं है ख़्वाब दीवाने का हस्ती
ये दुनिया सिर्फ़ इक धोका नहीं है
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हम भी हैं 'बिल्क़ीस' मजरूहीन में
हम पे भी तीर ओ तबर चलते रहे
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तमाम लाला ओ गुल के चराग़ रौशन हैं
शजर शजर पे शगूफ़ों में जल रही है हवा
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