बिमल कृष्ण अश्क के शेर
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था
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टैग : बसंत
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दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
ख़ुद से निकलूँ तो किसी और का रस्ता देखूँ
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देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
जिस तरफ़ आँख उठाऊँ वही चेहरा देखूँ
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तुम तो कुछ ऐसे भूल गए हो जैसे कभी वाक़िफ़ ही नहीं थे
और जो यूँही करना था साहब किस लिए इतना प्यार किया था
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मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
पुकारती फिरी बाज़ार में हवा मुझ को
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एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
जैसे देखा है तुझे वैसे न देखा होता
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सभी इंसाँ फ़रिश्ते हो गए हैं
किसी दीवार में साया नहीं है
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टैग : साया
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जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
इस तरह जागा कि जैसे रात-भर सोया न था
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ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
जैसे कि ख़ुद से आज कोई काम था मुझे
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अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
उस को चाहा था मगर अपनी तरह चाहा न था
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उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
कि जिस के घर का दरवाज़ा नहीं है
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पड़ने लगे जो ज़ोर हवस का तो क्या निगाह
हर ज़ाविए से जिस्म निकलता दिखाए दे
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बदन के लोच तक आज़ाद है वो
उसे तहज़ीब ने बाँधा नहीं है
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बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
हवस के नाम पर धागा नहीं है
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