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दीपक पुरोहित

1954 | जयपुर, भारत

दीपक पुरोहित के शेर

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यूँ गुफ़्तुगू-ए-उल्फ़त दिलचस्प हम करेंगे

आँखों से तुम कहोगे आँखों से हम सुनेंगे

वतन-परस्ती हमारा मज़हब हैं जिस्म-ओ-जाँ मुल्क की अमानत

करेंगे बरपा क़हर अदू पर रहेगा दाइम वतन सलामत

ये कैसी बद-दुआ' दी है किसी ने

समुंदर हूँ मगर खारा हुआ हूँ

अज़ल से बरसे है पाकीज़गी फ़लक से यहाँ

नुमायाँ होवे है फिर शक्ल-ए-बहन में वो यहाँ

अच्छा हुआ ज़बान-ए-ख़मोशी तुम पढ़े

शिकवे मिरे वगर्ना रुलाते तुम्हें बहुत

हवस-ए-ज़र ने किया रिश्तों का जो हाल पूछ

ख़ूँ रुलाता है यहाँ ख़ून का रिश्ता अपना

कि है मुख़्तसर दास्ताँ इश्क़ की

गले मिल के कोई गले पड़ गया

ख़ूब-रू कौन ये आया चमन में आज कि याँ

शर्म से सुर्ख़ हुए जाते हैं ये फूल सभी

था कभी उन की निगाहों में बुलंद अपना मक़ाम

इतनी ऊँचाई से गिर कर भी कोई बचता है

अजब चलन है ये बाज़ार-ए-इश्क़ का कि यहाँ

चवन्नी चलती है रुपये में हुस्न वालों की

जब आना ख़्वाब में हौले से नर्मी से क़दम रखना

गराँ है इक ज़रा आहट तिरे महव-ए-तसव्वुर को

ख़ुशामद ताबेदारी मिन्नत-ओ-ख़िदमत सुजूद-ए-हुस्न

अज़ल से दीदनी है बेबसी-ओ-आजिज़ी-ए-इश्क़

लम्हात-ए-वस्ल याद जो आए शब-ए-फ़िराक़

यक-लख़्त सुर्ख़ हो गए आरिज़ बे-इख़्तियार

सियह-बख़्ती का साया दीदा-ओ-दिल पर है यूँ तारी

कि इक मुद्दत से मेरे दिन भी कजलाए हुए से हैं

है ख़ूब मंज़र-ए-चारागरी कि हम ने यहाँ

दुआ के दर पे है देखा दवा को सज्दे में

जब आना ख़्वाब में हौले से नर्मी से क़दम रखना

गराँ है इक ज़रा आहट तिरे महव-ए-तसव्वुर को

एक उम्र भर में तय ये सफ़र मुख़्तसर हुआ

शहर-ए-ख़मोशाँ घर से बहुत दूर तो था

अजब चलन है ये बाज़ार-ए-इश्क़ का कि यहाँ

चवन्नी चलती है रूपे में हुस्न वालों की

तो बच रहेगा यक़ीनन ये सिर्फ़ आँखों में

बचाया तुम ने पानी जो वक़्त के रहते

था कभी उन की निगाहों में बुलंद अपना मक़ाम

इतनी ऊँचाई से गिर कर भी कोई बचता है

कहाँ जुरअत इन अश्कों की कि देहरी आँख की लाँघें

है पहरा ज़ब्त का ऐसा कि सहमे सहमे रहते हैं

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