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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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दिनेश कुमार

1977 | कैथल, भारत

दिनेश कुमार के शेर

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मुझ को सफलता बैठे बिठाए नहीं मिली

मैं ने गुहर तलाशे हैं दरिया खँगाल कर

मरासिम बर्फ़ में दबने पाएँ

क़रीब आओ दिसम्बर रहा है

कर के तारीफ़ वो मिरी झूटी

ज़हर धीमा चटा गया है मुझे

नन्हे लबों ने हँस के जो पापा कहा मुझे

दिन भर की मेरी सारी थकावट उतर गई

दुनिया में मिस्ल-ए-ताज निहायत हसीं था वो

लेकिन वफ़ा का रंग उतरने से पेशतर

देखो दरख़्त काटने से पहले एक बार

इन सब्ज़ टहनियों पे कोई घोंसला हो

ख़ुद-ब-ख़ुद चल के समुंदर ही क़रीब आएगा

हो अगर प्यासे तो हरगिज़ ये सपना देखो

जुड़ा ही रहता है ममता की गर्भनाल से वो

वजूद बेटे का माँ से जुदा नहीं होता

देखो तो काम एक भी हम ने कहाँ किया

पूछो तो एक पल की भी फ़ुर्सत नहीं रही

झूट बोला तो बच गई गर्दन

हक़ बयानी का फ़ाएदा क्या था

मुक़र्रर कर रखी है मैं ने अपने आँसूओं की हद

मिरे दुख-दर्द का पैकर मिरा चेहरा नहीं होता

मरने से भी गुरेज़ मुझ जैसे रिंद को

लेकिन ये हो कि मर के मुझे मय-कदा मिले

शाइरी नाम तसव्वुर में छलकती मय का

मर ही जाते जो पीने की इजाज़त होती

जिस का नक़्श-ए-पा ही मील का पत्थर है

कुछ तो ख़ूबी होगी उस बंजारे में

मैं तो मर कर भी जियूँगा शान से

मैं ने ग़ज़लों में उतारी ज़िंदगी

हाट पे क्या बिकता था हम को क्या मतलब

अपनी जेब में बस ख़्वाबों के सिक्के थे

मिलेगी आख़िरी ख़ाने में मौत ही सब को

बिसात-ए-दहर पे पैदल हो या हो फिर वो सवार

दर्द-ए-दिल की इंतिहा थी ज़ब्त टूटा और फिर

आँसुओं का रंग मेरी शाइ'री में गया

गीली मिट्टी है शायद जड़ पकड़ भी लें

मैं आँखों में सपने बोना चाहता हूँ

अँधेरा शहर में बे-ख़ौफ़ रक़्स करता रहा

चराग़ सारे हवाओं के इख़्तियार में थे

इस के मजमे की कोई सीमा नहीं

आदमी दर्शक मदारी ज़िंदगी

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