दिनेश कुमार के शेर
मुझ को सफलता बैठे बिठाए नहीं मिली
मैं ने गुहर तलाशे हैं दरिया खँगाल कर
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मरासिम बर्फ़ में दबने न पाएँ
क़रीब आओ दिसम्बर आ रहा है
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कर के तारीफ़ वो मिरी झूटी
ज़हर धीमा चटा गया है मुझे
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नन्हे लबों ने हँस के जो पापा कहा मुझे
दिन भर की मेरी सारी थकावट उतर गई
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दुनिया में मिस्ल-ए-ताज निहायत हसीं था वो
लेकिन वफ़ा का रंग उतरने से पेशतर
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देखो दरख़्त काटने से पहले एक बार
इन सब्ज़ टहनियों पे कोई घोंसला न हो
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ख़ुद-ब-ख़ुद चल के समुंदर ही क़रीब आएगा
हो अगर प्यासे तो हरगिज़ न ये सपना देखो
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जुड़ा ही रहता है ममता की गर्भनाल से वो
वजूद बेटे का माँ से जुदा नहीं होता
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देखो तो काम एक भी हम ने कहाँ किया
पूछो तो एक पल की भी फ़ुर्सत नहीं रही
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झूट बोला तो बच गई गर्दन
हक़ बयानी का फ़ाएदा क्या था
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मुक़र्रर कर रखी है मैं ने अपने आँसूओं की हद
मिरे दुख-दर्द का पैकर मिरा चेहरा नहीं होता
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मरने से भी गुरेज़ न मुझ जैसे रिंद को
लेकिन ये हो कि मर के मुझे मय-कदा मिले
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शाइरी नाम तसव्वुर में छलकती मय का
मर ही जाते जो न पीने की इजाज़त होती
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जिस का नक़्श-ए-पा ही मील का पत्थर है
कुछ तो ख़ूबी होगी उस बंजारे में
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मैं तो मर कर भी जियूँगा शान से
मैं ने ग़ज़लों में उतारी ज़िंदगी
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हाट पे क्या बिकता था हम को क्या मतलब
अपनी जेब में बस ख़्वाबों के सिक्के थे
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मिलेगी आख़िरी ख़ाने में मौत ही सब को
बिसात-ए-दहर पे पैदल हो या हो फिर वो सवार
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दर्द-ए-दिल की इंतिहा थी ज़ब्त टूटा और फिर
आँसुओं का रंग मेरी शाइ'री में आ गया
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गीली मिट्टी है शायद जड़ पकड़ भी लें
मैं आँखों में सपने बोना चाहता हूँ
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अँधेरा शहर में बे-ख़ौफ़ रक़्स करता रहा
चराग़ सारे हवाओं के इख़्तियार में थे
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इस के मजमे की कोई सीमा नहीं
आदमी दर्शक मदारी ज़िंदगी
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