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डॉ. जाफ़र अस्करी

1972 | कराची, पाकिस्तान

डॉ. जाफ़र अस्करी के शेर

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इक माँ के दम से ज़ीस्त में रौनक़ थी बरक़रार

अब वो नहीं तो रौनक़-ए-बज़्म-ए-जहाँ नहीं

छानी है ख़ाक हम ने बहुत कू-ए-यार की

'जा’फ़र' इस 'आशिक़ी से किसी को अमाँ नहीं

मज़हब से उस के दिल में पैदा हुआ गुदाज़

ये आदमी तो और भी सफ़्फ़ाक हो गया

मिट जाएगी वतन से जहालत की तीरगी

वो देख इंक़लाब का सूरज क़रीब है

ये शब-ए-ग़म ये मेरी तन्हाई

इस रिफ़ाक़त का कौन सानी है

मुल्ला तिरी अकड़ से ये होने लगा गुमान

जैसे ख़ुदा ज़मीं पे नुमूदार हो गया

तसादुम देख कर अफ़्कार-ए-नौ का जहल-ए-दौराँ से

सुख़न रौशन-ख़याली का सुनाना सख़्त मुश्किल है

नींद आती ही नहीं थी आगही के दर्द से

मौत ने आग़ोश में ले कर सुलाया है मुझे

छीन लेती है आदमी का वक़ार

मुफ़लिसी भी 'अज़ाब है यारो

अब 'इश्क़ में छुपी हुई लालच है दहर की

मजनूँ भी इस ज़माने का चालाक हो गया

बरसात मुफ़लिसों की सदा से रक़ीब है

कच्चे मकान गिरने का मौसम 'अजीब है

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