एजाज़ गुल के शेर
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई था अगर
फिर ये हंगामा मुलाक़ात से पहले क्या था
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टैग : मुलाक़ात
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मैं उम्र को तो मुझे उम्र खींचती है उलट
तज़ाद सम्त का है अस्प और सवार के बीच
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नतीजा एक सा निकला दिमाग़ और दिल का
कि दोनों हार गए इम्तिहाँ में दुनिया के
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धूप जवानी का याराना अपनी जगह
थक जाता है जिस्म तो साया माँगता है
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टैग : साया
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अजीब शख़्स था मैं भी भुला नहीं पाया
किया न उस ने भी इंकार याद आने से
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कोई सबब तो है ऐसा कि एक उम्र से हैं
ज़माना मुझ से ख़फ़ा और मैं ज़माने से
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हो नहीं पाया है समझौता कभी दोनों के बीच
झूट अंदर से है सच बाहर से उकताया हुआ
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क़िस्मत की ख़राबी है कि जाता हूँ ग़लत सम्त
पड़ता है बयाबान बयाबान से आगे
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अतवार उस के देख के आता नहीं यक़ीं
इंसाँ सुना गया है कि आफ़ाक़ में रहा
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दर खोल के देखूँ ज़रा इदराक से बाहर
ये शोर सा कैसा है मिरी ख़ाक से बाहर
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सुस्त-रौ मुसाफ़िर की क़िस्मतों पे क्या रोना
तेज़ चलने वाला भी दश्त-ए-बे-अमाँ में है
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बे-सबब जम'अ तो करता नहीं तीर ओ तरकश
कुछ हदफ़ होगा ज़माने की सितमगारी का
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दिनों महीनों आँखें रोईं नई रुतों की ख़्वाहिश में
रुत बदली तो सूखे पत्ते दहलीज़ों में दर आए
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जो क़िस्सा-गो ने सुनाया वही सुना गया है
अगर था इस से सिवा तो नहीं कहा गया है
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कभी क़तार से बाहर कभी क़तार के बीच
मैं हिज्र-ज़ाद हुआ ख़र्च इंतिज़ार के बीच
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मश्क़-ए-सुख़न में दिल भी हमेशा से है शरीक
लेकिन है इस में काम ज़ियादा दिमाग़ का
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हैरत है सब तलाश पे उस की रहे मुसिर
पाया गया सुराग़ न जिस बे-सुराग़ का
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हवा के खेल में शिरकत के वास्ते मुझ को
ख़िज़ाँ ने शाख़ से फेंका है रहगुज़ार के बीच
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होता है फिर वो और किसी याद के सुपुर्द
रखता हूँ जो सँभाल के लम्हा फ़राग़ का
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कुछ देर ठहर और ज़रा देख तमाशा
नापैद हैं ये रौनक़ें इस ख़ाक से बाहर
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उठा रखी है किसी ने कमान सूरज की
गिरा रहा है मिरे रात दिन निशाने से
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नहीं खुलता कि आख़िर ये तिलिस्माती तमाशा सा
ज़मीं के इस तरफ़ और आसमाँ के उस तरफ़ क्या है
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पाया न कुछ ख़ला के सिवा अक्स-ए-हैरती
गुज़रा था आर-पार हज़ार आइने के साथ
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चाहा था मफ़र दिल ने मगर ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर
पेचाक बनाती रही पेचाक से बाहर
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बुझी नहीं मिरे आतिश-कदे की आग अभी
उठा नहीं है बदन से धुआँ कहाँ गया मैं
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