आज पैवंद की ज़रूरत है
ये सज़ा है रफ़ू न करने की
वक़्त के साथ ग़ज़ल के भी मौसम बदलते रहते हैं, कुछ शोअरा उस मौसम के मुताबिक़ फ़स्लें पैदा करते हैं और कुछ उन फ़स्लों के लिए नई ज़मीनें तय्यार करते हैं। इक्कीसवीं सदी में फ़हमी बदायूनी साहब वही ज़मीन तय्यार कर रहे हैं जिनपर ग़ज़ल की नई फस्लें लहलहाऐंगी। की विलादत 4 जनवरी 1952 को बदायूं ज़िले के बिसौली क़स्बे में हुई। ज़रूरत कम-उम्री में लेखपाल की नौकरी की तरफ़ ले आई। जब क़िस्मत ने नौकरी से मुंह मोड़ लिया तो मैथ और साइंस की दिलचस्पियों ने कोचिंग क्लासेस के दरवाज़े खोल दिए। आपके अब तक दो शे'री मजमूए’, "पांचवी सम्त" और "दस्तकें निगाहों की" मंज़रे आम पर आ चुके हैं।
फ़हमी साहब ने शायरी में एक ऐसा रंग ईजाद किया है जो उनके हर शेर में मोहर की तरह नज़र आता है। फ़हमी साहब के शेर में आम तौर पर इतने कम अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल होता है कि हर लफ़्ज़ की ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। पुरानी अ’लामतों से नए मआ’नी बरामद करना एक बेहद मुश्किल अ’मल है, जिसे आप इस आसानी से अंजाम देते हैं कि वो अलामत दीगर कंटेम्पररी शोअ’रा के शे’रों में भी अपने पुराने मआ’नी की तरफ़ मुड़ कर नहीं देखती।
आपने शायरी को महज़ दिली जज़्बात के इज़हार तक महदूद न रख कर दिमाग़ी वर्ज़िश का सामान बनाया है, यानी सिर्फ़ शायर ही नहीं क़ारी की ज़हानत भी शे’रिय्यत की तकमील का हिस्सा है।
आपका बेशतर कलाम चंद मख़सूस बह्रों में होने की अहम वज्ह क़ारईन को बह्रों की भीड़ और रदीफ़-क़ाफ़िए की चका-चौंध के बजाए शे’रिय्यत पर मुतवज्जे करना है।