फ़ैज़ी के शेर
ज़ुल्म करता हूँ ज़ुल्म सहता हूँ
मैं कभी चैन से रहा ही नहीं
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पड़ गया है ख़ुदा से काम मुझे
और ख़ुदा का कोई पता ही नहीं
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मैं सुब्ह ख़्वाब से जागा तो ये ख़याल आया
जो रात मेरे बराबर था क्या हुआ उस का
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सोचता क्या हूँ तिरे बारे में चलते चलते
तू ज़रा पूछना ये बात ठहर कर मुझ से
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जाने मैं कौन था लोगों से भरी दुनिया में
मेरी तन्हाई ने शीशे में उतारा है मुझे
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किसे ढूँडता हूँ मैं अपने क़़ुर्ब-ओ-जवार में
ऐ फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-दोस्ताँ मुझे क्या हुआ
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अच्छा है तू ने इन दिनों देखा नहीं मुझे
दुनिया ने तेरे काम का छोड़ा नहीं मुझे
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