फ़ख़रुद्दीन ख़ाँ माहिर के शेर
दिल तो बे-तरह मेरा लग ही चला था उस से
पर मैं जूँ तूँ के बचाया इसे ख़ुद्दारी से
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दिल के बदले वो शोख़ चलते वक़्त
दे गया हम को इंतिज़ार अपना
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नहीं है ख़ूब सोहबत हर किसी कम-ज़र्फ़ से लेकिन
नहीं गर मानते अज़-राह-ए-नादानी तो बेहतर है
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हो उम्र दराज़ ज़ख़्म-ए-दिल की
जिस से दर-ए-दिल को बाज़ पाया
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