फ़रह शाहिद के शेर
तक़्सीम फिर हुई है विरासत कुछ इस तरह
इक माँ ज़मीं पे देखिए फिर दर-ब-दर हुई
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वो यूँ तो लगता है सब के जैसा
मगर जुदा कुछ जनाब में है
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उस ने कोई सदा भी तो मेरी नहीं सुनी
मेरी असर-पज़ीरी भी अब बे-असर हुई
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ये मुझ को महसूस हो रहा है
'फ़रह' फिर कोई इ'ताब में है
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नहीं है ख़ुश इज़्तिराब में है
मिरा ये दिल भी सराब में है
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मैं उस की अंखों में ऐसे डूबी
कि डूबा कोई चनाब में है
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मैं कैसी राहों में खो गई हूँ
सभी क़ुसूर इंतिख़ाब में है
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ख़ुशियाँ जो बट रही थीं वो हम को नहीं मिलीं
आई हमारी बारी तो वापस नज़र हुई
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मैं चाहे उस में नहीं हूँ शामिल
मगर वो दिल के निसाब में है
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कुछ इस तरह क़रीब वो आया मिरे लिए
उस की तवज्जोह प्यार में चाहत का घर हुई
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पूछो ज़रा ये चाँद से कैसे सहर हुई
इतनी तवील रात भी कैसे बसर हुई
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कितनी फ़राख़-दिल हूँ मैं 'फ़रह'-जी प्यार में
हैरत है उस की चाह में कितनी निडर हुई
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